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________________ श. १५ : सू. १०१ २६० भगवई ४. से णं तओहिंतो जाव उव्वट्टित्ता ४. सः तस्मात् यावत् उद्वर्त्य ४. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर उपरितन उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जइ। उपरितने मानुषोत्तरे संयूथे देवे मानस में संयूथ देव के रूप में उपपन्न हुआ। से णं तत्थ दिब्वाई भोगभोगाई जाब उपपद्यते। सः तत्र दिव्यानि । वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर चइत्ता चउत्थे सण्णिगन्भे जीवे भोगभोगानि यावत् च्युत्वा चतुर्थे चौथी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में उत्पन्न पञ्चायाति। संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति। हुआ। ५. से णं तओहिंतो अणंतरं उन्वट्टित्ता ५. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य ५. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर मध्यम मज्झिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उव- मध्यमे मानुषोत्तरे संयूथे देवे उपपद्यते। मानुषोत्तर संयूथ देव में उपपन्न हुआ। वहां वज्जइ। से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई सः तत्र दिव्यानि भोगभोगानि यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् च्यवन कर जाव चइत्ता पंचमे सण्णिगन्भे जीवे च्युत्वा पञ्चमे संज्ञिगर्ने जीवः पांचवीं बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप में पञ्चायाति। प्रत्यायाति। उत्पन्न हुआ। ६. से णं तओहितो अणंतरं उवट्टित्ता ६. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य ६. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर निम्नवर्ती हिडिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे अधस्तने मानुषोत्तरे संयूथे देवे मानुषोत्तर में संयूथ देव के रूप में उपपन्न उववज्जइ। से णं तत्थ दिव्वाइं उपपद्यते। सः तत्र दिव्यानि हुआ। वहां दिव्य भोगार्ह भोगों को यावत् भोगभोगाई जाव चइत्ता छटे सण्णिगन्भे भोगभोगानि यावत् च्युत्वा षष्ठे च्यवन कर छठी बार संज्ञी गर्भ में जीव के रूप जीवे पञ्चायाति। संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति। में उत्पन्न हुआ। ७. से णं तओहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता- ७. सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य- ७. वहां से अनंतर उद्वर्तन कर-ब्रह्मलोक बंभलोगे नाम से कप्पे पण्णत्ते-पाईण- ब्रह्मलोकः नाम सः कल्पः प्रज्ञप्तः- नाम का कल्प प्रज्ञप्त है-वह पूर्व-पश्चिम में पडीणायते उदण-दाहिणविच्छिण्णे, जहा प्राचीन-प्रतीचीनायतः उदीचीन- आयत और दक्षिण में विस्तीर्ण है, प्रज्ञापना ठाणपदे जाव पंच बडेंसगा पण्णत्ता, तं दक्षिण-विस्तीर्णः, यथा 'ठाणपदे' । के स्थान पद की भांति यावत् पांच अवतंसक जहा–असोगवडेंसए जाव पडिरूवा- से यावत् पञ्च अवतंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अशोकावतंसक यावत् णं तत्थ देवे उववज्जइ। से णं तत्थ दस तद्यथा-अशोकावतसंकः यावत् प्रतिरूप-वहां देव रूप में उपपन्न हुआ। वहां सागरोवमाई दिन्वाई भोगभोगाई जाव __ प्रतिरूपाः-सः तत्र देवे उपपद्यते। सः दस सागरोपम तक दिव्य भोगार्ह भोगों को चइत्ता सत्तमे सण्णिगन्भे जीवे तत्र दश सागरोपमानि दिव्यानि . यावत् च्यवन कर सातवीं बार संज्ञी गर्भ में पञ्चायाति। भोगभोगानि यावत् च्युत्वा सप्तमे जीव के रूप में उत्पन्न हुआ। संज्ञिगर्भे जीवः प्रत्यायाति। से णं तत्थ नवण्हं मासाणं बहुपडि वहां बहुप्रतिपूर्ण नौ मास तथा साढे सात रात पुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं पूर्णानाम् अद्धष्टमानां रात्रिंदिवानां दिन के बीत जाने पर सुकुमाल, भद्र, वीतिक्कंताणं सुकुमालगभद्दलए मिउ- व्यतिक्रान्तानां सुकुमारकभद्रकः मृदु- मृदुकुंडल के समान धुंघराले केश वाले कान कुंडलकुंचियकेसए मट्टगंडतल-कण्णपीढए कुण्डलकुञ्चित-केशकः मृष्टगण्डतल- के आभूषणों के समान चमकते हुए कपोल देवकुमारसप्पभए दारए पयाति। से णं कर्णपीठकः देवकुमार-सप्रभकः दारकः तथा देवकुमार सदृश प्रभा वाले पुत्र के रूप में अहं कासवा! तए णं अहं आउसो प्रजन्यते। सः अहं काश्यप! तत अहं जन्म लिया। काश्यप! वह मैं हूं। आयुष्मन् कासवा! कोमारियपब्वज्जाए कोमारएणं आयुष्मन् काश्यप! कौमारिकप्रव्रज्यायां काश्यप! मैंने कौमारिक-प्रव्रज्या व कौमारक बंभचेरवासेणं अविद्धकण्णए चेव संखाणं कौमारकेन ब्रह्मचर्यवासेन अविद्धकर्णकः ब्रह्मचर्यवास के साथ अविद्धकर्ण के रूप में ही पडिलभामि, पडिलभित्ता इमे सत्त चैव संख्यानं प्रतिलभे, प्रतिलभ्य इमान् । संख्यान (गणित) को प्राप्त किया। प्राप्त कर पउट्टपरिहारे परिहरामि, तं जहा- सप्त 'पउट्ट परिहारे' परिहरामि, मैंने ये सात 'पोट्ट परिहार' किए, जैसे तद्यथा१. एणेज्जस्स २. मल्लरामस्स १. एणेयकस्य २. मल्लरामस्य ३. १. एणेयक २. मल्लराम ३. मंडित ४. रोह ५. ३. मंडियस्स ४. रोहस्स ५. भारदाइस्स मण्डितस्य ४. रोहस्य ५. भारद्वाजस्य भारद्वाज ६. गौतमपुत्र अर्जुनक ७. मंखलिपुत्र ६. अज्जुणगस्स गोयमपुत्तस्स' ७. ६. अर्जुनकस्य गौतमपुत्रस्य गोशाल। गोसालस्स मखलिपुत्तस्स। ७. गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य। तत्थ णं जे से पढमे पउट्टपरिहारे से णं तत्र यः सः प्रथमः 'पउट्ट परिहारे' सः प्रथम पोट्ट परिहार में मैंने राजगृह नगर के रायगिहस्स नगरस्स बहिया मंडिकुच्छिसि राजगृहस्य नगरस्य बहिः मण्डिकुक्षौ बाहर मंडिककुक्षि चैत्य में कोण्डिकायन चेइयंसि उदाइस्स कुंडियायणस्स सरीरं चैत्ये उदायिनः कौण्डिकायणस्य शरीरं गौत्रीय उदायी के शरीर को छोड़ा, छोड़कर विप्पजहामि, विष्पजहित्ता एणेज्जगस्स विप्रजाहामि, विप्रहाय एणेयकस्य एणेयक के शरीर में अनुप्रवेश किया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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