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________________ भगवई १६. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्से संखेज्जवित्थडा नरगा किं सम्मद्दिहीहिं नेरइएहिं अविरहिया ? मिच्छदिट्ठीहिं नेर एहिं अविरहिया ? सम्मामिच्छदिहिं नेरइएहिं अविरहिया ? गोयमा ! सम्मद्दिद्दीहिं नेरइएहिं अविरहिया, मिच्छदिट्ठीहिं वि नेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया विरहिया वा । एवं असेखेज्जवित्थडे वि तिणि गमगा भाणियव्वा । एवं सक्करपभाए वि एवं जाव तमाए वि ॥ १७. अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेज्जवित्थडे नरए किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया-पुच्छा। गोयमा ! सम्मद्दिट्ठी नेरइया न उववज्जंति, मिच्छदिनेरइया उववज्जंति, सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया न उववज्जंति । एवं उब्वहंति वि, अविरहिए जव रयणप्पभाए । एवं असंखेज्जवित्थडे वि तिणि गमगा ॥ १८. से नूणं भंते! कण्हलेस्से, नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएस उववज्जंति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव उववज्जति ॥ १. सूत्र १४-१६ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मरण नहीं होता इसलिए रत्नप्रभा पृथ्वी में सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते, उद्वर्तन भी नहीं होता । १६. से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइकण्हलेस्से जाव उववज्जंति ? ११७ अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृताः नरकाः किं सम्यग्दृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः ? मिथ्यादृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः ? सम्यग्मिथ्यादृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः ? गौतम ! सम्यग्दृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिता, मिथ्यादृष्टिभिः अपि नैरयिकैः अविरहिताः सम्यग्मिथ्यादृष्टिभिः नैरयिकैः अविरहिताः विरहिताः Jain Education International वा । एवम् असंख्येयविस्तृतेषु अपि त्रयः गमकाः भणितव्याः । एवं शर्कराप्रभायाम् अपि एवं यावत् तमायाम् अपि । भाष्य अधः सप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्यां पञ्चसु अनुत्तरेषु यावत् संख्येयविस्तृते नरके किं सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः-पृच्छा । गौतम ! सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः न उपपद्यन्ते, मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, सम्यग्मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः न उपपद्यन्ते । एवम् उद्वर्तन्ते अपि, अविरहितः यथैव रत्नप्रभायाम् । एवम् असंख्येयविस्तृतेषु अपि त्रयः गमकाः । सः नूनं भदन्त ! कृष्णलेश्यः नीललेश्यः यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा कृष्णलेश्येषु नैरयिकेषु उपपद्यते ? हन्त गौतम! कृष्णलेश्यः यावत् उपपद्यते । १. भ. वृ. १३/१४- १७-न सम्ममिच्छो कुणइ कालं इति वचनात् मिश्रदृष्टयो न म्रियन्ते नापि तद्भवप्रत्ययं तेषामवधिज्ञानं स्यात् येन मिश्रदृष्टयः मध्यकाल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान की प्राप्ति हो सकती इसलिए रत्नप्रभा पृथ्वी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों से विरहित और अविरहित दोनों हो सकती है। तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेकृष्णलेश्यः यावत् उपपद्यन्ते ? श. १३ : उ. १ : सू. १६-१६ १६. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय- विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिकों का विरह होता है ? मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का विरह होता है ? सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का विरह होता है? गौतम! सम्यग्दृष्टि नैरयिकों का विरह नहीं होता, मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का विरह नहीं होता, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिकों का अविरह अथवा विरह दोनों होते हैं। For Private & Personal Use Only इसी प्रकार असंख्येय- विस्तृत नरकों में तीन गमक वक्तव्य हैं। इसी प्रकार शर्कराप्रभा की वक्तव्यता, इसी प्रकार यावत्तमा की वक्तव्यता । १७. भंते! अधः सप्तमी के पांच अनुत्तर यावत् संख्येय- विस्तृत नरकों में सम्यग्दृष्टि नैरयिकों की पृच्छा । गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते, मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते। इसी प्रकार उद्वर्तन की वक्तव्यता । अविरह की रत्नप्रभा की भांति वक्तव्यता । इसी प्रकार असंख्येय- विस्तृत नरकों में भी तीन गमक वक्तव्य हैं। १८. भंते! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या वाले होकर कृष्णलेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं ? हां गौतम ! कृष्णलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं। १६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - कृष्णलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं ? सन्तस्ते उत्पद्येरन् । २. वही, - कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसंभवादिति । www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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