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श. १३ : उ. १ : सू. १३-१५
गोयमा ! पंच अणुत्तरा महतिमहालया महानिरया पण्णत्ता, तं जहा - काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे।
ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा १ असंखेज्जवित्थडा ?
गोयमा ! संखेज्जवित्थडे य असंखेज्जवित्थडाय ॥
१३. अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएसु संखेज्जवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिया नेरइया उववज्जंति ? एवं जहा पंकष्पभाए, नवरं-तिसु नाणेसु न उववज्जंति, न उब्वट्टंति, पण्णत्तएसु तव अत्थि । एवं असंखेज्जबित्थडेसु वि, नवरं - असंखेज्जा भाणियव्वा ।
१४. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस किं सम्मद्दिट्ठी नेरइया उववज्जंति ? मिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति ? सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति ?
गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति, मिच्छदिट्ठी वि नेरइया उववज्जंति, नो सम्मामिच्छदिट्ठी नेरइया उववज्जंति ॥
१५. इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्टी नेरइया उव्वति ?
एवं चैव ॥
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गौतम ! पञ्च अनुत्तराः महामहान्तः महानिरयाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - कालः, महाकालः, रोरुकः, महारोरुकः, अप्रतिष्ठानः ।
ते भदन्त ! किं संख्येयविस्तृताः ? असंख्येयविस्तृताः?
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गौतम! संख्येयविस्तृतः च असंख्येयविस्तृताः च ।
१. सूत्र १३
अधः सप्तमी में सम्यक्त्व रहित जीव उत्पन्न होते हैं तथा उद्वर्तन करते हैं इसलिए उनके उपपात और उद्वर्तन- दोनों में तीन ज्ञान नहीं होते।
अधः सप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्यां पञ्चसु अनुत्तरेषु महामहत्सु महानिरयेषु संख्येयविस्तृते नरके एकसमये कियन्तः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ?
एवं यथा पंकप्रभायां, नवरं त्रिषु ज्ञानेषु न उपपद्यन्ते, न उद्वर्तन्ते, प्रज्ञप्तकेषु तथैव अस्ति । एवम् असंख्येयविस्तृतेषु अपि, नवरम् - असंख्येयाः भणितव्याः ।
भाष्य
अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावास शतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु किं सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? सम्यग्मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ? गौतम! सम्यग्दृष्टयः अपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते, मिथ्यादृष्टयः अपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते, नो सम्यग्मिथ्यादृष्टयः नैरयिकाः उपपद्यन्ते ।
अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रिंशति निरयावासशतसहस्रेषु संख्येयविस्तृतेषु नरकेषु किं सम्यग्दृष्टयः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते ?
एवं चैव ।
भगवई
गौतम! पांच अनुत्तर विशालतम महानरक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-काल, महाकाल, रोरुक, महारोरुक और अप्रतिष्ठान ।
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भंते! क्या वे संख्येय- विस्तृत हैं ? असंख्येय- विस्तृत हैं?
गौतम ! संख्येय विस्तृत और असंख्येय विस्तृत हैं।
'पण्णत्तएसु' यह पाठ सत्ता के गमक का सूचक है। सत्ताकाल में सम्यक्त्व लाभ हो सकता है इसलिए तीनों ज्ञान की प्राप्ति होती है, 'तहेव' शब्द के द्वारा यह सूचित किया गया है । द्रष्टव्य भगवई १३/३
१३. भंते! अधः सप्तमी पृथ्वी के पांच अनुत्तर विशालतम महानरकों में से संख्येयविस्तृत नरकों में एक समय में कितने नैरयिक उपपन्न होते हैं ?
इस प्रकार पंकप्रभा की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-मति, श्रुत और अवधिज्ञानी उपपन्न नहीं होते, उद्वर्तन नहीं करते किन्तु वहां मति, श्रुत तथा अवधि ज्ञान की सत्ता है। इसी प्रकार असंख्येय - विस्तृत महानरकों की वक्तव्यता, इतना विशेष है- संख्येय के स्थान पर असंख्येय वक्तव्य है।
१४. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय- विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं ? मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं ? सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न होते हैं ?
गौतम ! सम्यग्दृष्टि नैरयिक भी उपपन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि नैरयिक भी उपपन्न होते हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि नैरयिक उपपन्न नहीं होते।
१५. भंते! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से संख्येय- विस्तृत नरकों में क्या सम्यग्दृष्टि नैरयिक उद्वर्तन करते हैं ? पूर्ववत् ।
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