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भगवई
श. १३ : उ.१: सू. २०-२३
११८ गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्स- गौतम! लेश्यास्थानेषु संक्लिश्यमानेषु माणेसु संकिलिस्समाणेसु कण्हलेसं संक्लिश्यमानेषु कृष्णलेश्यां परिणमति, परिणमइ, परिणमित्ता कण्हलेसेसु परिणम्य कृष्णलेश्येषु नरकेषु उपपद्यन्ते नेरइएसु उववज्जंति। से तेणटेणं जाव तत तेनार्थेन यावत उपपद्यन्ते। उववज्जति॥
गौतम! लेश्या-स्थानों में संक्लेश होते होते वे कृष्णलेश्या में परिणत होते हैं, परिणत होकर कृष्णलेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कृष्णलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं।
२०. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से जाव
सुक्कलेस्से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता गोयमा ! जाव उववज्जंति॥
सः नूनं भदन्त! कृष्णलेश्यः यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा नीललेश्येषु नैरयिकेषु उपपद्यन्ते? हन्त गौतम ! यावत् उपपद्यन्ते।
२०. भंते! वे कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या
वाले होकर नीललेश्या वाले नैरयिकों में • उपपन्न होते हैं?
हां गौतम! नीललेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं।
२१.सेकेणटेणं जाव उववज्जति ?
तत् केनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते?
गोयमा ! लेस्सट्ठाणेसु संकिलिस्स- गौतम! लेश्यास्थानेषु संक्लिश्यमानेषु माणेसु वा विसुज्झमाणेसु वा नीललेस्सं वा विशुध्यमानेषु वा नीललेश्यां परिणमइ, परिणमित्ता नीललेस्सेसु परिणमति, परिणम्य नीललेश्येषु नेरइएसु उववज्जंति। से तेणटेणं नैरयिकेषु उपपद्यन्ते। तत् तेनार्थेन गोयमा ! जाव उववज्जंति।
गौतम! यावत् उपपद्यन्ते।
२१. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-नील
लेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं? गौतम! लेश्यास्थान में संक्लेश होते होते अथवा विशुद्धि होते होते नीललेश्या में परिणत होते हैं। परिणत होकर नीललेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा हैनीललेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं।
२२. से नूणं भंते ! कण्हलेस्से, नील- सः नूनं भदन्त! कृष्णलेश्यः, नीललेश्यः
लेस्सेजाव सुक्कलेस्से भवित्ता यावत् शुक्ललेश्यः भूत्वा कापोतलेश्येषु काउलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंति ? नैरयिकेषु उपपद्यन्ते? एवं जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्साए एवं यथा नीललेश्यायां तथा कापोतवि भाणियव्या जाव से तेणटेणं जाव लेश्यायाम् अपि भणितव्याः यावत् तत् उववज्जति॥
तेनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते।
२२. भंते! वे कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत्
शुक्ललेश्या वाले होकर कापोतलेश्या वाले नैरयिकों में उपपन्न होते हैं? गौतम! इस प्रकार नीललेश्या वाले नैरयिकों की भांति कापोतलेश्या वाले नैरयिक भी वक्तव्य हैं यावत् इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कापोतलेश्या में यावत् उपपन्न होते हैं।
भाष्य
१. सूत्र १८-२२
संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान-इन दोनों का जयाचार्य ने विशद लेश्या का परिवर्तन होता रहता है। संक्लिष्ट परिणाम और विवेचन किया है। विशुद्ध परिणाम-उस परिवर्तन के हेतु हैं। संक्लिष्ट परिणाम तीव्रतम कापोतलेश्या के परिणमन में भी नीललेश्या की भांति दोनों होता है तब नीललेश्या यावत् शुक्ललेश्या के स्थानों को छोड़कर नियम काम करते हैं। जीव कृष्णलेश्या में परिणत हो जाता है।
नरक में कृष्ण, नील और कापोत-ये तीन लेश्याएं प्राप्त होती नीललेश्या कृष्णलेश्या की अपेक्षा विशुद्ध है इसलिए हैं। इसका तात्पर्य है-मृत्यु से अन्तर्मुहर्त पूर्व जिस लेश्या वाले नरक नीललेश्या में परिणमन के दो नियम हैं-प्रशस्त लेश्या के स्थान में उत्पन्न होता है उसी लेश्या का परिणमन हो जाता है। लेश्या का अविशुद्धि को प्राप्त होते हैं और अप्रशस्त लेश्या के स्थान विशुद्धि यह निरूपण लेश्या-स्थान के परिवर्तन के आधार पर किया गया है। को प्राप्त होते हैं। उस अवस्था में नीललेश्या का परिणमन होता है। लेश्या-स्थान का संबंध द्रव्य लेश्या से है। २३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति। २३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
१. भ. वृ. १३/१८,२१-लेश्याभेदेषु 'संकिलिस्समाणे'सु त्ति अविशुद्धिं
गच्छत्सु कण्हलेसं परिणमइ त्ति कृष्ण लेश्यां याति ततश्च 'कण्हलेसे' त्यादि। संकिलिस्समाणेसु वा विसुद्धमाणेसु वा त्ति प्रशस्त लेश्या स्थानेषु
अविशुद्धिं गच्छत्सु अप्रशस्तलेश्या स्थानेषु च विशुद्धिं गच्छत्सु, नीललेश्यां
परिणमतीति भाः। २. भ. जो, ढा. २७४, गा. ३१-५६।
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