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________________ ३५० भगवई श. १६ : उ. १ : सू. १८-२५ १८. कति णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा! पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहासोइंदिए, चक्विंदिए, घाणिदिए, रसिदिए, फासिदिए॥ कति भदन्त ! इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि? गौतम! पञ्च इन्द्रियाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियम्, चक्षुरिन्द्रियम्, घ्राणेन्द्रियम्, रसनेन्द्रियम्, स्पशन्द्रियम्। १८. भंते! इन्द्रियां कितनी प्रज्ञप्त हैं? गौतम! इन्द्रियां पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसेश्रोत्र-इन्द्रिय, चक्षु-इन्द्रिय, घ्राण-इन्द्रिय, रसन-इन्द्रिय, स्पर्श-इन्द्रिय। १६. कतिविहे णं भंते ! जोए पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा–मणजोए, वइजोए, कायजोए॥ कतिविधः भदन्त ! योगः प्रज्ञप्तः? गौतम! त्रिविधः योगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- मनोयोगः वाग्योगः, काययोगः। १६. भंते! योग के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! योग के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसेमन योग, वचन योग, काय योग। २०. भंते! जीव औदारिक शरीर को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है? अधिकरण २०. जीवे णं भंते! ओरालियसरीरं जीवः भदन्त! औदारिकशरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधि- निर्वय॑मानः किम् अधिकरणी? करणं? अधिकरणम्। गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि॥ गौतम! अधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि। गौतम! अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। २१. से केणटेणं भंते! एवं बुचइ- अधिकरणी वि, अधिकरणं पि? गोयमा! अविरतिं पडुच्च। से तेणटेणं जाव अधिकरणं पि॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- २१. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा हैअधिकरणी अपि, अधिकरणम् अपि? जीव अधिकरणी भी है? अधिकरण भी है? गौतम! अविरतिं प्रतीत्य! तत् तेनार्थेन । गौतम ! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यावत् अधिकरणम् अपि। यावत् अधिकरण भी है। २२. पुढविकाइएण णं भंते! ओरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरण? एवं चेव। एवं जाव मणुस्से। एवं वेउब्बियसरीरं पि, नवरं-जस्स अत्थि॥ पृथ्वीकायिकानां भदन्त! औदारिक- शरीरं निर्वय॑मानः किम अधिकरणी? अधिकरणम्? एवं चैव। एवं यावत् मनुष्यः एवं वैक्रियशरीरम् अपि, नवरम्-यस्य अस्ति । २२. भंते! पृथ्वीकायिक जीव औदारिक शरीर को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है? अधिकरण है? पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् मनुष्य की वक्तव्यता। इसी प्रकार वैक्रिय शरीर की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसके वह शरीर है। २३. जीवे णं भंते! आहारगसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी?-पुच्छा। गोयमा! अधिकरणी वि, अधिकरणं पि॥ जीवः भदन्त! आहारकशरीरं निर्वय॑मानः किम् अधिकरणी?-पृच्छा। गौतम! अधिकरणी अपि, अधिकरणम् २३. भंते! जीव आहारक शरीर को निष्पन्न करता हुआ क्या अधिकरणी है?-पृच्छा। गौतम! अधिकरणी भी है, अधिकरण भी है। अपि। २४. से केणटेणं जाव अधिकरण पि? तत् केनार्थेन यावत् अधिकरणम् अपि? २४. यह किस अपेक्षा से यावत् अधिकरण भी गोयमा! पमायं पडुच्च। से तेणद्वेणं जाव गौतम! प्रमादं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन अधिकरणं पि। एवं मणुस्से वि। यावत् अधिकरणम् अपि। एवं तेयासरीरं जहा ओरालियं, मनुष्योऽपि। तैजसशरीरं यथा नवर-सब्बजीवाणं भाणियच्वं। एवं __ औदारिकम् नवरम्-सर्वजीवानां कम्मगसरीरं पि॥ भाणितव्यम्। एवं कार्मकशरीरम् अपि। गौतम! प्रमाद की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यावत् अधिकरण भी है। इसी प्रकार मनुष्य की वक्तव्यता। तैजस शरीर की औदारिक शरीर की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-वह सर्व जीवों के वक्तव्य है। इसी प्रकार कर्म शरीर की वक्तव्यता। २५. जीवे णं भंते! सोइंदियं निबत्तेमाणे किं अधिकरणी? अधिकरणं? जीवः भदन्त! श्रोत्रेन्द्रियं निर्वय॑मानः २५. भंते! जीव श्रोत्रेन्द्रिय को निष्पन्न करता किम् अधिकरणी? अधिकरणम्? हुआ क्या अधिकरणी है? अधिकरण है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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