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________________ भगवई ३४६ श. १६ : उ. १ : सू. १६,१७ गोयमा! आयप्पयोगनिब्वत्तिए वि, परप्पयोगनिव्वत्तिए वि, तदुभयप्पयोगनिव्वत्तिए वि॥ गौतम! आत्मप्रयोगनिर्वर्तितः अपि, परप्रयोगनिर्वर्तितः अपि, तदुभयप्रयोगनिर्वर्तितः अपि। गौतम! जीवों का अधिकरण आत्म-प्रयोग से निष्पन्न भी है, पर-प्रयोग से निष्पन्न भी है, तदुभय-प्रयोग से निष्पन्न भी है। १६. से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ? गोयमा! अविरतिं पड़च। से तेणटेणं जाव तदुभयपयोगनिव्वत्तिए वि। एवं जाव वेमाणियाणं॥ तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते? गौतम! अविरतिं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन यावत् तदुभयप्रयोगनिर्वर्तितः अपि। एवं यावत् वैमानिकानाम्। १६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम! अविरति की अपेक्षा। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् तदुभय-प्रयोग निष्पन्न भी है। इस प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता। भाष्य अल सूत्र ८-१६ हैं। प्रस्तुत पाठ पर यह जयाचार्य की समीक्षा है।' प्रस्तुत आलापक में जीव को अधिकरणी और अधिकरण-दोनों केवल शस्त्र ही अधिकरण नहीं होता, शरीर भी अधिकरण बतलाया है। है। इस अपेक्षा से सभी जीव अधिकरणी भी हैं, अधिकरण भी हैं। अधिकरण शब्द के अनेक अर्थ हैं-कलह, शस्त्र का प्रयोग, शरीर का अधिकरण सहभावी है इसलिए वह साधिकरणी भी है।' यंत्र, हल, गाड़ी आदि। ___ कोई मनुष्य अपने निमित्त से अधिकरणी है, कोई दूसरे के प्रस्तुत प्रकरण में अधिकरण पद के द्वारा शरीर और इन्द्रियांनिमित्त से अधिकरणी है, कोई दोनों के निमित्त से अधिकरणी है। तथा हल, गाड़ी आदि बाह्य परिग्रह विवक्षित हैं। जीव के अधिकरण अधिकरणी होने का मूल हेतु अविरति है। होता है इसलिए वह अधिकरणी है। जीव शरीर आदि अधिकरणों अधिकरण का संबंध किससे है? परिग्रह से, अविरति से अथवा से कथंचित अभिन्न है, इस अपेक्षा से उसे अधिकरण भी कहा गया शस्त्र प्रयोग से? इन तीनों प्रश्नों पर विमर्श आवश्यक है। जीव के अधिकरणी और अधिकरण होने का मूल हेतु अविरति अविरति की अपेक्षा सभी असंयमी जीव अधिकरणी भी हैं और है। विरति की अवस्था में शरीर, इन्द्रिय के होने पर भी जीव अधिकरण भी हैं। अधिकरणी और अधिकरण नहीं होता। परिग्रह (शस्त्र आदि) की अपेक्षा मनुष्य और देव अधिकरणी प्रमत्त संयती के अनुपरत कायिकी क्रिया नहीं होती। द्रष्टव्य- और अधिकरण-दोनों हैं। नैरयिक जीव अपनी विक्रिया शक्ति के ठाणं २/६ का टिप्पण। द्वारा शस्त्रों का निर्माण भी करते हैं और उनका प्रयोग भी करते सिद्ध और संयती जीव अधिकरण के प्रकरण में विवक्षित नहीं हैं।' १७. कति णं भंते! सरीरंगा पण्णत्ता? गोयमा! पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, वेउब्बिए, आहारए, तेयए, कम्मए॥ कति भदन्त! शरीरकाणि प्रज्ञप्तानि? गौतम! पञ्चशरीरकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-औदारिकम्, वैक्रियम्, आहारकम्, तैजसम्, कार्मकम्। १७. भंते! शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! शरीर पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण। १. भ. वृ. १६/८ अधिकरणं-दुर्गतनिमित्तं वस्तु तच विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च, तथा बाह्यो हलगन्त्र्यादिपरिग्रहस्तदस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः अहिकरणं पित्ति शरीराद्यधिकरणेभ्यः कथञ्चिद व्यतिरिक्तत्वादधिकरणं जीवः। २. भ. वृ. १६/६ एतच द्वयं जीवस्याविरतिं प्रतीत्योच्यते तेन यो विरतिमान् असौ शरीरादिभावेऽपि नाधिकरणी नाप्यधिकरणमविरतियुक्तस्यैव शरीरा देरधिकरणत्वादिति। ३. भ. जो. ढा. ३४८, गाथा-३०-३२ प्रश्न करै को ताहि, सअधिकरणी जीव छै। निरधिकरणी नाहि, एहवो आरल्यो सूत्र में। जीव विषै तो लेह, सिद्ध संजती पिण सहु। निरधिकरणी तेह, उत्तर कहिए तेहनो॥ जीवेणं वच एक, जीव अवती माहिलो। एक जीव संपेख, ते आश्री ए संभवै॥ ४. भ. पृ. सू. १६/११ सह-सहभाविनाऽधिकरणेन-शरीदिना वर्तत इति, समासान्ते विधिः साधिकरणी, संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदैव सहचारित्वात् साधिकरणत्वमुपदिश्यते। शस्त्राधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्या तदविरतिरूपस्य सहवर्तित्वाज्जीवः साधिकरणीत्युच्यते। ५.जीवा. ३/११० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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