________________
भगवई
३५१
श. १६ : उ. १ : सू. २६,२७
एवं जहेव ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियं एवं यथैव औदारिकशरीरं तथैव पि भाणियव्वं, नवरं-जस्स अत्थि श्रोत्रेन्द्रियम्। नवरम्-यस्य अस्ति सोइंदियं। एवं चक्विंदिय-घाणिंदिय- श्रोत्रेन्द्रियं एवं चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रियजिभिंदिय-फासिंदियाण वि, नवरं । जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रियाणाम् अपि, जाणियव्वं-जस्स जं अस्थि॥
नवरम् ज्ञातव्यं यस्य यत् अस्ति।
इस प्रकार जैसे औदारिक शरीर की वक्तव्यता
वैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसके श्रोत्रेन्द्रिय है। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिस जीव के जितनी इन्द्रियां हैं।
२६. जीवे णं भंते! मणजोग निव्वत्तेमाणे
किं अधिकरणी? अधिकरणं? एवं जहेव सोइंदियं तहेव निरवसेसं। वइज-
गो एवं चेव, नवरं-एगिदिय-वज्ज- णं। एवं कायजोगो वि, नवरंसव्वजीवाणं जाव वेमाणिए।
जीवः भदन्त! मनोयोगं निर्वय॑मानः २६. भंते! जीव मनोयोग को निष्पन्न करता किम् अधिकरणी? अधिकरणम् ? हुआ क्या अधिकरणी है, अधिकरण है? एवं यथैव श्रोत्रेन्द्रियं तथैव निरवशेषम्। इस प्रकार जैसे श्रोत्रेन्द्रिय की वक्तव्यता, वैसे वाग्योगो एवं चैव, नवरम्-एकेन्द्रिय- ही निरवशेष वक्तव्य है। वचन योग की पूर्ववत् वर्जाणाम्। एवं काययोगोऽपि, नवरम्- वक्तव्यता, इतना विशेष है-एकेन्द्रिय वर्जित। सर्वजीवानां यावत् वैमानिकानाम्। इसी प्रकार काययोग की वक्तव्यता, इतना
विशेष है-सर्व जीवों के यावत् वैमानिक।
भाष्य
१.सूत्र २०-२६
__ प्रस्तुत आलापक में शरीर रचना के संदर्भ में अधिकरणी और अधिकरण की मीमांसा की गई है। अधिकरणी और अधिकरण का हेतु अविरति बतलाया गया है। आहारक शरीर का निर्माण केवल संयमी मुनि करता है इसलिये उसके अधिकरणी और अधिकरण का हेतु प्रमाद है। जयाचार्य ने इसे अशुभ योग रूप प्रमाद बतलाया है।
तैजस शरीर और कर्म शरीर के निर्वर्तन अथवा निर्माण का निर्देश एक नई जानकारी देता है। तैजस और कार्मण शरीर का संबंध अनादिकालीन है। जीवाजीवाभिगम में तैजस और कार्मण की स्थिति अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित बतलाई गई है।
यदि ये दोनों शरीर अनादिकालीन हैं तो इनका निर्माण कैसे हो सकता है? इनके निर्माण के समय जीव अधिकरणी, अधिकरण भी कैसे हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर प्रमाण के आधार पर दिया जा सकता है। तैजस और कार्मण शरीर का जघन्य प्रमाण अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट प्रमाण औदारिक शरीर जितना तथा केवली समुद्घात के समय लोक प्रमाण, इसी प्रकार मारणान्तिक समुद्घात
के समय लंबाई में लोकांत से लोकांत तक है।"
उक्त संदर्भो का निष्कर्ष यह है-तैजस और कार्मण शरीर अनादि कालीन हैं किन्तु नए जन्म के साथ उनका आकार बदलता रहता है। वे शरीर नाम कर्म की प्रकृति के द्वारा परिवर्तित होते रहते हैं। औदारिक शरीर के अनुरूप उनका निर्माण होता है, आकार-संरचना होती है। इस दृष्टि से उनके निर्वर्तन का सिद्धान्त संगत है।
जस्स अस्थि-वैक्रिय शरीर देव, नारक और वायुकाय के होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य के लब्धिजन्य होता है।'
जरस अत्थि (१६/१५) द्रष्टव्य यंत्र
श्रोत्रेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय स्पर्शेन्द्रिय एकेन्द्रिय ४ द्वीन्द्रिय ४ त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय x पंचेन्द्रिय ।
२७. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
२७. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
१.भ. जो. ढा. ३४६. गाथा १६-२१
आहारक शरीर सोय, छठे गुण ठाणेज है। ज्यां अविरत नहिं कोय, तिणमूं प्रमाद आश्रयी। लब्धि फोडवै जेह, अशुभ जोग रूपी तिको। प्रमाद कहियै तेह, तिणमें नहिं जिण आगन्या॥ पद छत्तीसम मांहि, आहारक तेजु वैक्रिय। लब्धि फोड़वै ताहि, क्रिया पंच उत्कृष्ट थी॥ शीतल तेजू जाण, वली उष्ण तेजू कही। शतक पनरमें वाण, तिणसू बिहुं तेजू विषे॥ जंघा विद्याचार, बली वैक्रिय फोड़वै। विण आलोयां धार, कह्यो विराधक केवली॥
तिणसूं एह संवाद, लब्धि आहारक फोड़वै।
अशुभ जोग प्रमाद, प्रायश्चित्त आवै तसु॥ २. तत्त्वार्थाधिगम सू. २/४२-अनादिसंबंधे च। ३. जीवा. ६/१७४, १७६ ४. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका २/४६ : एतयोश्च तैजसकार्मणयोरवरतः
प्रमाणभंगुलासंख्येयभागः उत्कृष्टतश्चौदारिकशरीरप्रमाणे, केवलिनः समुद्घाते लोकप्रमाणे वा भवतः मारणान्तिकसमुद्घाते वा आयामतो लोकान्ता
ल्लोकान्तायते स्यातामिति। ५. भ. वृ. १६/२२-२६ तत्र नारकदेवानां वायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्मनुष्याणां च
तदस्तीति ज्ञेयम्।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org