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श. १५ : आमुख २४२
भगवई अनुयोगद्वार में 'पाण्डुरंग' अथवा 'पंडुरंग' शब्द है। इसका अर्थ चूर्णिकार ने सरक्ख-सरजस्क, हरिभद्रसूरि ने भौत-राख लगाने वाला तथा मल्लधारी हेमचन्द्र ने भस्मोद्धूलित गात्र किया है। तात्पर्य में तीनों एक हैं।'
निशीथ चूर्णि में अन्यतीर्थिक श्रमण-श्रमणियों के तीस नामों का उल्लेख मिलता है-(१) आजीवक' (२) कप्पडिय' (३) कव्वडिय' (४) कावालिय' (५) कावाल (६) कापालिका (७) गेरु (८) गोव्वय (8) चरक' (१०) चरिका२ (११) तचनिय३ (१२) तच्चणगी" (१३) तडिय' (१४) तावस (१५) तिडंगी परिव्वायग" (१६) दिसापोक्खिय" (१७) परिव्वाय' (१८) पब्रिाजिकारे (१६) पंचगव्वासणीय (२०) पंचग्गिताय (२१) पंडरंग (२२) पंडर भिक्खु (२३) स्तपड५ (२४) रत्तपडा (२५) वणवासी२७ (२६) भगवी (२७) वृद्धसावकर (२८) सक्क-शाक्य (२६) सरकव" (३०) समण (३१) हड्डसरकवा३
इनमें पंडरंग और आजीवक का पृथक्-पृथक् उल्लेख है। भगवान् महावीर के समय में आजीवक संप्रदाय बहुत प्रभावशाली था। उक्त उल्लेखों के आधार पर सहज ही ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं
१. आजीवक संप्रदाय श्रमण परंपरा का एक संप्रदाय है। २. उसके सिद्धांत, साधना और जीवन चर्या की जानकारी के प्रमुख स्रोत जैन आगम, उसके व्याख्या ग्रंथ तथा बौद्ध पिटक हैं। ३. आजीवक संप्रदाय के आचार्य गोशाल के जीवन वृत्त का विस्तार से विवरण प्रस्तुत शतक (१५) में उपलब्ध है। ४. दृष्टिवाद के प्रकरण में आजीवक परिपाटी का उल्लेख होना उनके सैद्धांतिक चिंतन की विशेषता को प्रदर्शित करता है। ५. नय का सिद्धांत आजीवक संप्रदाय को पार्श्व की परम्परा से जोड़ता है। ६. छह दिशाचरों ने पूर्वगत से अष्टांग महानिमित्त का निर्युहण किया। इससे आजीवक संप्रदाय का पूर्वज्ञान राशि की परंपरा से
संबंध जुड़ गया। प्रस्तुत शतक में गोशालक का जीवनवृत्त विस्तार से वर्णित है। इस प्रसंग में दो दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ है
१. नियतिवाद २. परिवर्त्तवाद (पउट्ट परिहार)" नियतिवाद की चर्चा उवासगदसाओ (अध्ययन ७) में मिलती है। सूत्रकृतांग में भी वह प्रतिपादित है। परिवर्त्तवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन अन्य आगमों में उपलब्ध नहीं है। आवश्यक चूर्णि में पउट्ट परिहार की समीचीन परिभाषा मिलती है।
अपने जीवन के अंतिम काल में गोशाल के हृदय परिवर्तन का वृत्त तथा अनागत काल में संसार-भ्रमण के पश्चात् अंत में मोक्ष-प्राप्ति करने की भविष्यवाणी समग्र प्रकरण को रोचक और प्रेरक बना देती है। आंतरिक पश्चात्ताप का माहात्म्य सर्वत्र स्वीकृत है। यहां मृत्यु के पश्चात् बारहवें स्वर्ग में उत्पत्ति का उल्लेख भी प्रस्तुत प्रकरण की प्रामाणिकता के पक्ष में प्रत्यक्ष प्रमाण है। भावी जीवन में गोशाल के जीव द्वारा पुनः
१. अणु., २०.२६ २. अ. चू. पृ. १२-पंडुरंगा सारक्खा । अहावृ. पृ. १७-पांडुरंगा-भौताः ।
अमवृ. पृ. २२-पांडुराङ्गाः-भस्मोद्धूलितगात्राः। ३. निशीथ सूत्र सभाष्य चूर्णि, भाग २, पृ. ११८,२०० ४. वही, २/२०७,४५६ ५. वही, ३/१६८ ६. वही,२/३८ ७. वही, ४/१२५ ८. वही, ४/६० ६. वही, २/३३२ १०. वही, ३/१६५ ११. वही, २/११८,२०० १२. वही, ४/१० १३. वही, ३/३५३,३२५ १४. वही, ४/६० १५. वही, २/२०७,४५६ १६. वही, २/३,३३२ १७. वही, १/१२
१८. वही, ३/१६५ १६. वही, २/११८,२०० २०. वही, ४/१० २१. वही, ३/१६५ २२. वही, ३/१९५ २३. वही, २/११६ २४. वही, ३/४१४ २५. वही, १/११३,१२१ २६. वही, १/१२३ २७. वही, ३/४१४ २८. वही, ४/१० २६. वही, २/११८ ३०. वही, २/३,११८ ३१. वही, ३/२५३ ३२. वही, २/३३२ ३३. वही, २/२०७ ३४. भगवई, १५/४-५ ३५. वही, १५/७३
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