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भगवई
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श. १५ : आमुख
जैन आगमों में मक्खली गोशाल को गोसाल मंखलिपुत्त कहा है (उवासगदसाओ)। संस्कृत में उसे ही मस्करी गोशालपुत्र कहा गया है (दिव्यावदान पृ. १४३)। मस्करी या मक्खलि या मंखलि का दर्शन सुविदित था। महाभारत में मंकि ऋषि की कहानी में नियतिवाद का ही प्रतिपादन है। (शुद्धं हि दैवमेवेदं हठे नैवास्ति पौरुषम्, शान्तिपर्व १७७ /११ - ४ ) । मंकि ऋषि का मूल दृष्टिकोण निर्वेद या जैसा पतंजलि ने कहा है शान्ति परक था, अर्थात् अपने हाथ-पैर से कुछ न करना । यह पाणिनिवाद का ठीक उल्टा था। मंखलि गोसाल के शुद्ध नाम के विषय में कई अनुश्रुतियां थी। जैन प्राकृत रूप मंखलि था। भगवती सूत्र के अनुसार गोसाल मंख संज्ञक भिक्षु का पुत्र था (भगवती सूत्र १५ ।१) । शान्ति पर्व का मंकि निश्चयरूप से मंखलि का ही दूसरा रूप है। मंखलि नाम उसका क्यों पड़ा, इस संबंध में एक विचित्र - सी कथा बौद्ध परम्परा में प्रचलित है; जिसके अनुसार गोशालक दास था। एक बार वह तेल का घड़ा उठाये आगे-आगे चल रहा था और उसका मालिक पीछे-पीछे। आगे फिसलन की भूमि आई। उसके स्वामी ने कहा- 'तात ! मा खलि, तात! मा खलि' 'अरे! स्खलित मत होना, स्खलित मत होना, पर गोशालक स्खलित हुआ और तेल भूमि पर बह चला। वह स्वामी के डर से भागने लगा। स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह वस्त्र छोड़ कर नंगा ही भाग चला। इस प्रकार वह नग्न साधु हो गया और लोग उसे 'मंखलि' कहने लगे। '
कहा जाता है कि मक्खलि का जन्म गोशाला या गोष्ठ में हुआ था, जिससे उनका यह नाम पड़ा। पाणिनि ने भी गोशाला में जन्म लेने वाले को गोशाल कहा है (गोशालायां जातः गोशालः, ४/३/३५, स्थानान्ते गोशालखरशालाच ) । सामञ्ञफलसुत्त में छह अन्यतीर्थिक तीर्थकरों का उल्लेख मिलता है- पूरणकश्यप, मक्खली गोशाल, अजितकेशकंबल, पकुद कात्यायन, संजयवेलट्ठीपुत्त, निग्गंथ नातपुत्त । '
पूरणकश्यप ने छह अभिजातियां निर्धारित की, उनमें आजीवक संप्रदाय के लिए शुक्लाभिजाति और परमशुक्लाभिजाति का उल्लेख है। " प्रोफेसर हर्मन जेकोबी और प्रोफेसर ल्यूमेन ने इस वर्गीकरण को गोशालक द्वारा किया हुआ माना है किन्तु वह यथार्थ नहीं है। इस विषय में ‘उत्तराध्ययन : समीक्षात्मक अध्ययन' की कुछ पंक्तियों पर ध्यान देना आवश्यक हैं
मानवों का छह भागों में विभाजन गोशालक द्वारा नहीं, किन्तु पूरण कश्यप द्वारा किया गया था। पता नहीं, प्रोफेसर ल्यूमैन और डॉ. हर्मन जेकोबी ने उसे गोशालक द्वारा किया हुआ मानवों का विभाजन किस आधार पर माना ?
पूरणकश्यप बौद्ध साहित्य में उल्लिखित छह तीर्थंकरों में से एक है।" उन्होंने रंगों के आधार पर छह अभिजातियां निश्चित की थीं
१. कृष्णाभिजाति-क्रूर कर्म वाले सौकरिक, शाकुनिक आदि जीवों का वर्ग
२. नीलाभिजाति - बौद्ध भिक्षु तथा कुछ अन्य कर्मवादी, क्रियावादी भिक्षुओं का वर्ग ।
३. लोहिताभिजाति - एक शाटक निर्ग्रथों का वर्ग ।
४. हरिद्राभिजाति - श्वेत वस्त्रधारी या निर्वस्त्र ।
५. शुक्लाभिजाति - आजीवक श्रमण श्रमणियों का वर्ग ।
६. परमशुक्लाभिजाति - आजीवक आचार्य - नन्द वत्स, कृश सांकृत्य, मस्करी गोशालक आदि का वर्ग । "
कुछ विद्वान् अनुयोगद्वार में उल्लिखित पंडरंग शब्द को आजीवक संप्रदाय का सूचक मानते हैं। यह सही नहीं है। प्रोफेसर बलदेव उपाध्याय ने पंडरंग के विषय में अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है
'विक्रम के पञ्चम शतक में सुप्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर ने 'वृहज्जातक' के 'प्रव्रज्यायोग' प्रकरण में ये सात वर्ग किए थे- शाक अथवा रक्तपट, आजीवक, निर्ग्रथ, तापस, चतुर्थ आश्रमी ब्राह्मण, वृद्धश्रावक तथा चरक। इन सात प्रकार के भिक्षुओं में आजीवकों को भी अन्यतम माना है। टीकाकार भट्टोत्पल (११वीं शताब्दी) ने इन्हें 'एकदण्डी' तथा नारायण का भक्त बतलाया है। निशीथ चूर्णि के भाष्यकार के समय (सप्तम शतक) ये लोग 'गोशालक शिष्य' होने के अतिरिक्त 'पाण्डुर भिक्षु' या 'पाण्डुरंग भिक्षु' कहलाने लगे थे। अनुयोगद्वार चूर्णि में पाण्डुरंग का पर्याय 'सरजस्क' है अर्थात् धूल से भरे अंगवाले। आजीवक भिक्षु नग्न ही रहते थे। अतः संभव जान पड़ता है कि शीत को रोकने के लिए वे अपने शरीर पर भस्म लगाते होंगे और इसी कारण उनका नाम 'पाण्डुरंग' (भूरे रंग वाला) साधु पड़ गया होगा ।"
१. आचार्य बुद्धघोष, धम्मपद - अडकथा १ - १४३ मज्झिमनिकाय,
अट्ठकथा, १-४२२
२. पाणिनिकालीन भारत वर्ष, पृ. ३७६-७७
३. दीघनिकाय १ - क्षीलखंधवग्गो, अध्याय-२, सामञ्ञफलसुत्तं २ / २-३, पृ.
४१
४. अंगुत्तर निकाय, ६ / ६ / ३, पृ. ६३।
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५. Sacred Books of the East, Vol. XLV, Introduction, p XXX
६. उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. २४२-२४३
७. दीघनिकाय, १/२, पृ. १६, २०
८. अंगुत्तरनिकाय, ६ / ६ / ३, भाग ३, पृ. ३५-६३, १४
६. भारतीय धर्म और दर्शन, लेखक आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ. १६०१६१
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