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________________ श. १५ : आमुख २४० भगवई आजीवक संप्रदाय का एक प्रमुख दार्शनिक सिद्धांत है-नियतिवाद। शकडालपुत्र नाम का कुंभकार आजीवक संप्रदाय का उपासक था। उपासक दशा के सातवें अध्ययन में उसके नियतिवादी दृष्टिकोण का निर्देश है।' ____ आर्द्रकुमार और गोशालक का सविस्तर संवाद सूत्रकृतांग में उपलब्ध है। नंदी सूत्र में आजीवक अछिन्नछेदनयिक सूत्रों को आजीवक सूत्र परिपाटी के अनुसार बतलाया गया है। आजीवक परिपाटी के अनुसार अछिन्नछेदनयिक सूत्रों का उल्लेख समवाओ में तीन स्थानों पर किया गया है। आजीवक-सम्मत सात परिकर्मों का उल्लेख नंदी और समवायांग'-दोनों में है। उक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है भगवान महावीर के शासन के साथ आजीवक संप्रदाय का पर्याप्त संपर्क रहा है। दृष्टिवाद के प्रकरण में आजीवक का उल्लेख मूलस्रोत की एकता की ओर ध्यान आकृष्ट करता है। दृष्टिवाद की परम्परा भगवान् पार्श्व से चली आ रही है। यह स्वीकार करने में कोई बाधक प्रमाण प्रतीत नहीं होता। आजीवक सम्प्रदाय भगवान् पार्श्व की परम्परा से उद्भूत है-दर्शनसार का यह अभिमत भी सर्वथा निराधार नहीं लगता। नियतिवादी श्रमणों के लिए 'पासत्थ' शब्द का प्रयोग भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व का है। इस विषय में 'उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन' की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना प्रासंगिक होगासूत्रकृतांग (१/१/३:२) में नियतिवादियों को पार्श्वस्थ कहा है एवमेगे हु पासत्या, ते भुज्जो विष्पगभिआ। एवं उबढिआ संता, ण ते दुक्ख विमोक्खया॥ वृत्तिकार ने पार्श्वस्थ का अर्थ 'युक्ति से बाहर ठहरने वाला' या 'पाश-बंधन में स्थित' किया है किन्तु ये सारे अर्थ कल्पना से अधिक मूल्य नहीं रखते। वस्तुतः पार्श्वस्थ का अर्थ 'पार्श्व की परम्परा से संबंधित' होना चाहिए। औपपातिक में आजीवकों के सात प्रकार बतलाए गए हैं-द्विगृहान्तरित, त्रिगृहान्तरित, सप्तगृहान्तरित, उत्पलद्वंतिक, गृहसामुदायिक, विद्युतान्तरिक, उष्ट्रिका-श्रमण। ये अपने तप के प्रभाव से अच्युत कल्प तक देवरूप में उत्पन्न होते थे। जैन साहित्य में प्रकीर्ण सामग्री के आधार पर आजीवकों के दर्शन और आचार का एक विशद प्रारूप तैयार किया जा सकता है। वासुदेवशरण अग्रवाल ने पाणिनि के आधार पर मस्करी का अर्थ नियतिवादी किया है 'पाणिनि ने मस्करी शब्द परिव्राजक के लिये सिद्ध किया है (मस्करमस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः, ६/१/१५४)। यहां मस्करी का अर्थ मक्खलि गोसाल से है जिन्होंने आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की थी। पतंजलि ने स्पष्ट यही अर्थ लिया है-मस्करी वह साधु नहीं है जो हाथ में मस्कर या बांस की लाठी लेकर चलता हो। फिर क्या है? मस्करी वह है जो यह उपदेश देता है कि कर्म मत करो, शांति का मार्ग ही श्रेयस्कर है (न वै मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी परिखाजकः। किं तर्हि। मा कृत कर्माणि, मा कृत कर्माणि शान्तिः श्रेयसीत्याहातो मस्करी पब्रिाजकः, भाष्य ६/१/१५४)। यह निश्चित रूप से मक्खलि गोसाल के कर्मापवाद सिद्धांत का उल्लेख है। वे कर्म या पुरुषार्थ की निन्दा करके नियति या भाग्य को ही सब कुछ मानते थे। किसी प्रकार के फल की प्राप्ति अपने या पराए कर्म या पराक्रम पर निर्भर नहीं करती, यह तो सब भाग्य का खेल है। पुरुषार्थ कुछ नहीं है, दैव ही प्रबल है। मक्खलि के दर्शन में यदृच्छा को कोई स्थान नहीं था, वे तो मानते थे कि क्रूर दैव ने सब कुछ पहले से ही नियत कर दिया है। बौद्ध ग्रंथों में कहा है कि बुद्ध मक्खलि गोसाल को सब आचार्यों में सबसे अधिक खतरनाक समझते थे। __ अन्य प्रमाण से भी इंगित होता है कि पाणिनी को मस्करी के आजीवक दर्शन का परिचय था। (अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः सूत्र में, ४/४/६०) आस्तिक, नास्तिक, दैष्टिक तीन प्रकार के दार्शनिकों का उल्लेख है। आस्तिक वे थे जिन्हें बौद्ध ग्रंथों में इस्सर करणवादी कहा गया है, जो यह मानते थे कि यह जगत् ईश्वर की रचना है। (अयं लोको इस्सर निमित्तो)। पाली ग्रन्थों के नत्थिक दिट्टि दार्शनिक पाणिनि के नास्तिक थे। इसमें केशकम्बली के नत्थिक दिहि अनुयायी प्रधान थे। (इतो परलोक गतं नाम नत्थि अयं लोको उच्छिज्जति, जातक ५/२३६)। यही लोकायत दृष्टिकोण था जिसे कठ उपनिषद् में कहा है-अयं लोको न परः इति मानी। पाणिनि के तीसरे दार्शनिक दैष्टिक या मक्खलि के नियतिवादी लोग थे जो पुरुषार्थ या कर्म का खंडन करके दैव की ही स्थापना करते थे। १. उवा., अध्ययन ७ ६. सम., प्रकीर्णक समवाय १०६ २. सू. द्वितीय, श्रुतस्कंध : छठा अध्ययन ७. दर्शनसार ३. नंदी, सू. १०३ ८. पासत्थ या पार्श्वस्थ की विशेष जानकारी के लिए दृष्टव्य, अतीत का ४. (क) सम., २२/२ अनावरण (ख) सम., ८८/२ ६. सू. वृ. १/३/२ (ग) सम., प्रकीर्णक समवाय १११ १०. ओव. १५८ ५.नंदी, सू. १०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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