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आमुख
भगवती सूत्र का प्रस्तुत शतक न केवल जैन परम्परा के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, अपितु समग्र प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण सूचना-स्रोत है। प्रस्तुत शतक में भगवान् महावीर के छद्मस्थ-जीवनकाल तथा तीर्थंकर-जीवनकाल के कुछ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रसंगों का पूर्णतः प्रामाणिक एवं सर्वांगीण वृत्तान्त आलेखित है।
भारतीय संस्कृति की दो धाराएं बहुत प्राचीन हैं-श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परंपरा। कौन पहले और कौन पीछे-यह लंबी चर्चा का विषय है फिर भी यह कहा जा सकता है-श्रमण परम्परा का संबंध द्रविड़, असुर, पणि, व्रात्य आदि प्राचीनतम जातियों से रहा। दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमणों के पांच विभाग बतलाए गए हैं:
१. निग्रंथ-जैन मुनि २. शाक्य-बौद्ध भिक्षु ३. तापस-जटाधारी, वनवासी, तपस्वी ४. गेरुक-त्रिदंडी, परिव्राजक ५. आजीवक
निशीथ चूर्णि में अन्यतीर्थिक श्रमणों के तीस गणों का उल्लेख मिलता है। दशवैकालिक नियुक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं, उनमें चरक का भी उल्लेख है।'
आजीवक संप्रदाय श्रमण परंपरा का संप्रदाय है। गोशालक उस संप्रदाय के आचार्य बने। वे आजीवक संप्रदाय के प्रवर्तक नहीं थे। उन्होंने स्वयं अपने आपको आजीवक संप्रदाय का सातवां आचार्य स्वीकार किया। आजीवक संप्रदाय के प्रवर्तक कुण्डियायन थे। उनके पश्चात् ऐणेयक, मल्लराम, मंडित, रोह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुन-ये छह आचार्य हुए। सातवें आचार्य गोशालक बने। इनका आचार्यत्वकाल क्रमशः बाईस, इक्कीस, बीस, उन्नीस, अठारह, सतरह तथा सोलह वर्ष का रहा।
आजीवक संप्रदाय भगवान् महावीर के युग में बहुत प्रतिष्ठित और प्रभावशाली था। आगम साहित्य में आजीवक के श्रमणों और गृहस्थ दोनों के धार्मिक तप और व्रत चर्या का उल्लेख मिलता है। स्थानांग में आजीवक के चार प्रकार के तप का उल्लेख है-उग्रतप, घोरतप, रस निर्ग्रहण और जिह्वेन्द्रिय प्रतिसंलीनता।।
सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी आजीवक भिक्षुओं को सम्राट् द्वारा गुफा दिए जाने का उल्लेख है। वह सम्प्रदाय कब तक चलता रहा, यह ठीक से कह देना कठिन है, पर शिलालेखों आदि से ई. पू. दूसरी शताब्दी तक तो उसका अस्तित्व प्रमाणित होता ही है।
दक्षिण भारत में आजीवक संप्रदाय संभवतः ईस्वी चौदहवीं शताब्दी तक जीवित रहा। यह मत डॉ. बाशम द्वारा प्रस्तुत अध्ययन पर आधारित है, जो उन्होंने दक्षिण भारत की भाषाओं के साहित्य के आधार पर बनाया है।१०
प्रस्तुत आगम में आजीवकों का स्थविर के साथ संवाद और उस विषय में गौतम की भगवान् महावीर से चर्चा का लंबा प्रकरण है।" इस प्रकरण में आजीवकों के बारह उपासकों के नाम बतलाए गए हैं-१. ताल २. ताल प्रलंब ३. उद्विध ४. संविध ५. अपविध ६. उदक ७. नामोदक ८, नार्मोदक ६. अनुपालक १०. शंखपालक ११. अयंपुल १२. कायरक।
१. दश. नि., हारिभद्रीय वृ. प. ६८ २. निशीथ चूर्णि, भाग-२, पृ. ११८-२०० ३. दश. नि., गाथा १५८-१५६ ४. भ., १५/१०१ ५. वही, १५/१०१ ६. ठाणं, ४/३५० ७. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख, पब्लिकेशन्स डिवीजन, दिल्ली,
१६५७, पृ. ४०१ से ४०३। ८. चिमनलाल जयचंद शाह, उत्तर हिन्दुस्तान मा जैन धर्म, लोंगमैन्स एण्ड
ग्रीन कं. लंदन, १६३०, पृ. ६४। ६. डा. सत्यरंजन बनर्जी, Foreword to A. L. Bashan's 'Thistory and
Doctrines of Ajivikas! १०. डॉ. बाशम, History and Dotrines of Ajivikas pp 188-204 ११. भ., ८/२३०-२४२
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