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श. १२ : उ. २ : सू. ६१-६५
भगवई ६१. पाणिदियवसद्दे णं भंते ! जीवे किं
बंधड ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ?
घ्राणेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किम् उपचिनोति?
६१. भंते ! घ्राणेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ
जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है ? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥
"गुपारपट्टइ॥
एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते।
६२. रसिंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं रसेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं
बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? । बध्नाति? किं प्रकरोति? किं किं उवचिणाइ?
चिनोति? किम् उपचिनोति?
६२. भंते ! रसनेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ
जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ? किसका उपचय करता है? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥
एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते।
६३. फासिदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं
बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ?
स्पर्शनेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं ६३. भंते ! स्पर्शनेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ बध्नाति ? किं प्रकरोति? किं । जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या चिनोति? किम् उपचिनोति?
प्रकर्ष करता है ? किसका चय करता है ?
किसका उपचय करता है? एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते।
इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनूपर्यटन करता है।
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥
भाष्य
१. सूत्र ५६-६३ ___इन्द्रिय लोलुपता से कर्म बंधन दृढ़ होता है। इसके अतिरिक्त असात वेदनीय कर्म का बार बार उपचय होता है। इन्द्रिय लोलुपता के साथ असात वेदनीय के उपचय का संबंध बहुत विमर्शनीय है। इसका फलित यह है कि इन्द्रिय विजय और स्वास्थ्य का घनिष्ठ
संबंध है। इसी प्रकार इन्द्रिय लोलुपता और रोग का भी घनिष्ठ संबंध है। तुलना के लिए देखें-भगवई १/४६-४७ तथा १२/२२२५ का भाष्य। शब्द-विमर्श
इंदिय वसट्टे-इन्द्रिय की परतंत्रता से पीड़ित, आत।
६४. तए णं सा जयंती समणोवासिया ततः सा जयन्ती श्रमणोपासिका ६४. वह श्रमणोपासिका जयंती श्रमण भगवान्
समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् महावीर से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठा सेसं एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा शेषं कर हृष्ट-तुष्ट हो गई (भ.१/१५२-१५५) जहा देवाणंदा तहेव पव्वइया जाव यथा देवानन्दा तथैव प्रव्रजिता यावत् शेष देवानंदा की भांति वक्तव्यता, वैसे ही सम्बदुक्खप्पहीणा॥ सर्वदुःखप्रहीना।
प्रव्रजित हो गई यावत् सब दुःखों को क्षीण कर दिया।
६५. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
६५. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
१. भ. वृ. १२/५६-६३--श्रोत्रेन्द्रियवशेन-तत्पारतन्त्र्येण ऋतः पीडितः श्रोत्रेन्द्रियवशातः श्रोत्रेन्द्रियवशं वा ऋतो-गतः श्रोत्रेन्द्रियवशातः ।
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