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भगवई
श. १२ : उ. २ : सू. ५६,६०
२६ धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो संयोजयितारः भवन्ति। एते जीवाः भवंति। एए णं जीवा दक्खा समाणा दक्षाः सन्तः बहुभिः आचार्यवैयावृत्यैः बहहिं आयरियवेयावच्चेहिं उवज्झाय- ___ उपाध्यायवैयावृत्यैः स्थविरवैयावृत्यैः वेयावच्चेहि थेरखेयावच्चेहिं तवस्सि- तपस्विवैयावृत्यैः ग्लानवैयावृत्यैः शैक्षवेयावचेहि गिलाणवेयावच्चेहिं सेहवेया- वैयावृत्यैः कुलवैयावृत्यैः गणवैयावृत्यैः बच्चेहिं कुलवेयावचेहिं गणवेयावच्चेहि __संघवैयावृत्यैः साधार्मिकवैयावृत्यैः संघवयावचेहिं साहम्मियवेयावच्चेहिं आत्मानं संयोजयितारः भवन्ति, एतेषां अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवानां दक्षत्वं साधु । जीवाणं दक्वत्तं साहू। से तेणटेणं जयंती ! एवं वुच्चइ- तत् तेनार्थेन जयन्ति ! एवमुच्यतेअत्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, अस्त्येककानां जीवानाम् आलसिकत्वं अत्यंगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साधु। साहू॥
संयोजनाओं में संयोजित करते हैं। वे जीव दक्षता के कारण अनेक आचार्यों के वैयावृत्य, उपाध्यायों के वैयावृत्य, स्थविरों के वैयावृत्य, तपस्वियों के वैयावृत्य, ग्लानों के वैयावृत्य, शैक्षों के वैयावृत्य, कुलों के वैयावृत्य, गणों के वैयावृत्य, संघों के वैयावृत्य और साधर्मिकों के वैयावृत्य द्वारा अपने आप को संयोजित करते हैं, इसलिए उन जीवों का दक्षत्व अच्छा है। जयंती! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कुछ जीवों का दक्षत्व अच्छा है, कुछ जीवों का आलस्य अच्छा है।
भाष्य १. सूत्र ५५-५८
व्यक्ति आचार्य आदि की सेवा में व्याप्त होता है। दस प्रकार के दुर्बलता और बलवत्ता, आलस्य और दक्षता की व्याख्या भी वैयावृत्य के लिए द्रष्टव्य है- ठाणं १०/१७.५/४४-४५। सुप्त और जागृत के समान है। एक उल्लेखनीय बात है कि दक्ष
५१. सोइंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं
बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ?
श्रोत्रेन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किम चिनोति? किं उपचिनोति ?
जयंती ! सोइंदियवसट्टे णं जीवे जयन्ति ! श्रोत्रेन्द्रियवशातः जीवः आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ आयुर्वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीः शिथिलसिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधण- बन्धनबद्धाः 'धणिय बन्धनबद्धाः बद्धाओ पकरेइ, हस्सकालठिझ्याओ प्रकरोति, ह्रस्वकालस्थितिकाः दीर्घदीहकालठिइयाओ पकरेइ, मंदाणु- कालस्थितिकाः प्रकरोति, मन्दानुभावाः भावाओ तिब्वाणुभावाओ पकरेइ, तीव्रानुभावाः प्रकरोति, अल्पप्रदेशाग्राः अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ बहूप्रदेशाग्राः प्रकरोति, आयुश्च कर्म पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ स्यात् बध्नाति, स्यात् नो बध्नाति, सिय नो बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च असातवेदनीयं च कर्म भूयः-भूयः णं कम्मं भुज्जो-भुज्जो उवचिणाइ, उपचिनोति, अनादिकं च 'अणवदग्गं' अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं __ च दीर्घाद्धं चतुरन्तं संसारकन्तारम् चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टइ॥ अनुपरिवर्तते।
५६. भंते ! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ
जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है ? जयंती! श्रोत्रेन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बंधन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ बन्धन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है। आयुष्य कर्म का बंध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता। वह असातवेदनीय कर्म का बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तहीन दीर्घपथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
६०. चक्खिदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं
बंधइ ? किं पकरेइ ? किं चिणाइ? किं उवचिणाइ ?
चक्षुरिन्द्रियवशातः भदन्त ! जीवः किं बध्नाति? किं प्रकरोति? किं चिनोति? किम् उपचिनोति?
६०. भंते ! चक्षुरिन्द्रिय के वश आर्त बना हुआ
जीव क्या कर्म का बंध करता है? क्या प्रकर्ष करता है? किसका चय करता है? किसका उपचय करता है? इस प्रकार पूर्ववत् यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है।
एवं चेव जाव अणुपरियट्टइ॥
एवं चैव यावत् अनुपरिवर्तते?
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