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श. १३ : उ. ४ : सू. ६२
विग्रह- कंडक का अर्थ है-वक्र अवयव वाला । ब्रह्मलोक लोकपुरुष के कोहनी के स्थान पर है। इस आधार पर लोक को वक्र शरीर वाला कहा गया है।
विशेष जानकारी के लिए देखें अणुओगद्दाराई सूत्र ४११ का टिप्पण पृष्ठ २४४ - २४६॥
लोकान्त में कहीं प्रदेश की वृद्धि है और कहीं हानि है। इस आधार पर वह भी विग्रहकंडक बनता है। इस प्रकार यह लोक ब्रह्मलोक तथा लोकान्त- इन दो स्थानों में वक्र शरीर वाला है। संस्थान की जानकारी के लिए देखें भगवई ७ / ३ तथा ११/
६२. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥
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१. वही, १३ / ८८ - ८६ - विग्गहविग्गहिए ति विग्रहो वक्रं तद्युक्तो विग्रहःशरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः, 'विग्गहकंडए' त्ति विग्रहो वक्रं कण्डकं - अवयवो, विग्रहरूपं कण्डकं विग्रहकण्डकं तत्र तत्र ब्रह्मलोक
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६० का भाष्य ।
प्रस्तुत आगम में लोक के विषय में अनेक आलापक उपलब्ध हैं- भगवई ५ / २४३ - २४४, ११ / ६०-११४। शब्द विमर्श
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
भगवई
विग्रह - वक्र, लघु । विग्रहिक - विग्रह वाला ।
विग्गह विग्गहिए-विग्रह वक्र, विग्रह- शरीर, वक्र शरीर वाला। विग्गह कंडए - विग्रह - वक्र, कंडक अवयव ।
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६२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
कूप्पर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्धया हान्या वा वक्रं भवति तद्विग्रहकण्डकं, तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति ।
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