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________________ भगवई लोए बहुसमे, एत्थ णं लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ॥ ८६. कहि णं भंते! विग्गहविग्गहिए लोए कुत्र भदन्त! विग्रहवैग्रहिकः लोकः पण्णत्ते ? प्रज्ञप्तः ? गौतम! विग्रहकण्डके, अत्र विग्रहवैग्रहिकः लोकः प्रज्ञप्तः । गोयमा ! विग्गहकंडए, एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते ॥ किंसंठिए णं भंते! लोए पण्णत्ते ? गोमा ! सुपइट्टियसंठिए लोए पण्णत्तेट्ठा विच्छिणे, मज्झे संखित्ते, उपि विसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे बरवइरविग्गहिए, उपि उद्धमुइंगा - कारसंठिए । तंसि च णं सासयंसि लोगंसि ट्ठा विच्छिसि जाव उपि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ-पास, अजीवे वि जाणइपास, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिब्वाइ सव्वदुक्खाणं अंत करेति ॥ ६०. ६१. एयस्स णं भंते! अहेलोगस्स, तिरियलोगस्स, उडलोगस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे तिरियलोए, उलो असंखेज्जगुणे, अहेलोए विसेसाहिए ॥ १. . लोक १४७ अत्र लोक बहुसमः अत्र लोक: सर्ववैग्रहिकः प्रज्ञप्तः । १. सूत्र ८८-६१ प्रस्तुत आलापक में लोक के विषय में चार प्रश्न उपस्थित कर उनका उत्तर दिया गया है- २. लोक सर्वाधिक संक्षिप्त कहां है ? ३. लोक वक्रशरीर वाला कहां है ? ४. लोक किस संस्थान वाला है? किंसंस्थितः भदन्त ! लोकः प्रज्ञप्तः ? गौतम! सुप्रतिष्ठकसंस्थितः लोकः प्रज्ञप्तः - अधः विच्छिन्नः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशालः । अधः पर्यङ्कसंस्थितः, मध्ये वरवज्रवैग्रहिकः, उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः । तस्मिन् च शाश्वते लोके अधः विच्छिन्ने यावत् उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली जीवान् अपि जानाति पश्यति, अजीवान् अपि जानाति पश्यति, ततः पश्चात् सिध्यति 'बुज्झइ' मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति । एतस्य भदन्त ! अधोलोकस्य तिर्यक्लोकस्य, उर्ध्वलोकस्य च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? गौतम! सर्वस्तोकः तिर्यक्लोकः, ऊर्ध्वलोकः असंख्येयगुणः, अधोलोकः विशेषाधिकः । बहुसम वृद्धि हानि रहित कहां है ? Jain Education International भाष्य १. भ. वृ. १३/८८ - बहुसमे' त्ति अत्यन्तं समः, लोको हि क्वचिद् वर्धमानः क्वचिद् हीयमानोऽतस्तन्निषेधाद् बहुसमो वृद्धिहानिवर्जितः इत्यर्थः । 'सव्वविग्गहिए' ति विग्रहो वक्रं लघुमि (रि) त्यर्थः तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः सर्वविग्रहिकः सर्वसंक्षिप्त इत्यर्थः, उवरिमहेद्विल्लेसु श. १३ : उ. ४ : सू. ८६ - ६१ बहुसम तथा इसी स्थान पर सर्व लघु प्रज्ञप्त है। ८६. भंते! यह लोक कहां वक्र शरीर वाला प्रज्ञप्त है ? गौतम ! जहां विग्रह- कण्डक है- प्रदेश की हान वृद्धि के कारण वक्र है, वहां लोक वक्र शरीर वाला प्रज्ञप्त है। For Private & Personal Use Only ६०. भंते! लोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ? गौतम ! लोक सुप्रतिष्ठक संस्थान वाला प्रज्ञप्त है - निम्न भाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में विशाल है। वह निम्न भाग में पर्यक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। इस शाश्वत निम्न भाग में विस्तीर्ण यावत् ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में उत्पन्न ज्ञानदर्शन का धारक, अर्हत्, जिन, केवली, जीवों को भी जानता - देखता है, अजीवों को भी जानता देखता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत होता है और सब दुःखों का अंत करता है। १. भंते! इस अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? गौतम ! तिर्यक्लोक सबसे अल्प है। ऊर्ध्वलोक उससे असंख्येय गुण अधिक है। अधोलोक उससे विशेषाधिक है। लोक का आकार कहीं वर्धमान और कहीं हीयमान है। रत्नप्रभा पृथ्वी में दो क्षुल्लक प्रतर हैं। वे शेष प्रतरों की अपेक्षा छोटे हैं इसलिए उन्हें क्षुल्लक प्रतर कहा गया है। उनकी लंबाई चौड़ाई एक रज्जु प्रमाण है। वे तिर्यक् लोक के मध्य भाग में विद्यमान हैं। ऊपरिवर्ती प्रतर से ऊपर की ओर प्रतर की वृद्धि होती है। अधोवर्ती प्रतर से नीचे की ओर प्रतर की वृद्धि होती है। इन दोनों प्रतरों की अवस्थिति है, वहां लोक बहुसम है, सर्व संक्षिप्त है। ' खुड्डागपयरेसु त्ति उपरिमो यमवधीकृत्योद्धर्वं प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ताः, अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ताः ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायाम-विष्कंभयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्त्तिनोः एत्थं णं ति एतयोः - प्रज्ञापकेन उपदर्श्यमानतया प्रत्यक्षयोः । www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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