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________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ८७,८८ १४६ नो इणढे समझे। अणंता पणत्थ जीवा ओगाढा॥ नो अयमर्थः समर्थः। अनन्ताः पुनरत्र जीवाः अवगाढाः। भगवई यह अर्थ संगत नहीं है। वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। १७. से केणटेणं भंते ! एवं बूच्चइ-एयंसिणं तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- ८७. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा धम्मत्थिकाय . अधम्मत्थिकाय- एतस्मिन् धर्मास्तिकाय-अधर्मास्ति- है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आगासत्थिकायंसि नो चक्किया केई । काय-आकाशास्तिकाये नो 'चक्किया' आकाशास्तिकाय-इनमें कोई जीव रहने, आसइत्तए वा सइत्तए वा चिट्ठित्तए वा कश्चित् आसितुं वा शयितुं वा स्थातुं वा सोने, ठहरने, बैठने और करवट लेने में निसीयत्तए वा तुयट्टित्तए वा? अणंता निषीदितुं वा त्वग्वर्तितुं वा? अनंताः समर्थ नहीं है? वहां अनंत जीव अवगाढ हैं? पुणत्थ जीवा ओगाढा ? पुनरत्र जीवाः अवगाढाः? गोयमा! से जहानामए कूडागार- गौतम! अथ यथानामका कूटागारशाला गौतम ! एक यथानाम कूटागारशाला है। साला सिया-दुहओ लित्ता गुत्ता स्यात्-द्विधा लिप्ता गुप्ता गुप्तद्वारा भीतर और बाहर दोनों ओर से पुती हुई, गुत्तवार णिवाया णिवायगंभीरा। अह । निवाता निवातगंभीरा। अथ कश्चित् गुप्त, गुप्त द्वार वाली, पवन-रहित, निवातणं केई पुरिसे पदीवसहस्सं गहाय । पुरुषः प्रदीपसहस्रं गृहीत्वा कूटागार- गंभीर है। किसी पुरुष ने हजार दीपक लेकर कूडागारसालाए अंतो-अंतो शालायाम् अन्तः-अन्तः अनुप्रविशति, कूटागारशाला के भीतर-भीतर अनुप्रवेश अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता तीसे । अनुप्रविश्य तस्यां कूटागारशालायां किया, अनुप्रवेश कर उस कूटागार शाला के कूडागारसालाए सब्बतो समंता घण- सर्वतः समन्तात् घन-निचित-निरन्तर- सर्वतः समन्तात्-चारों ओर सघन, निचित, निचिय-निरंतर-णिच्छिड्डाई दुवार- निश्छिद्राणि द्वारवदनानि पिदधाति, अन्तर-रहित निश्छिद्र दरवाजों के कपाटों वयणाई पिहेइ, पिहेत्ता तीसे कूडागार- पिधाय तस्यां कूटागारशालायां को ढक दिया, ढककर उस कूटागारशाला सालाए बहुमज्झदेसभाए जहण्णेणं बहमध्यदेशभागे जघन्येन एकः वा द्वौ के बहु मध्य देश-भाग में जघन्यतः एक, दो एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं वा त्रयः वा, उत्कर्षेण प्रदीपसहस्रं अथवा तीन, उत्कृष्टतः हजार दीप पदीवसहस्सं पलीवेज्जा। से नूणं प्रदीपयेत्। प्रज्वलित किए। गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अण्ण- तत् नूनं गौतम! ताः 'प्रदीपलेश्याः गौतम ! क्या वे प्रदीप-लेश्याएं अन्योन्य मण्णसंबद्धाओ अण्णमण्णपुट्ठाओ अन्योन्य-संबद्धाः अन्योन्यस्पृष्टाः संबद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य संबद्धअण्णमण्णसंबद्धपुट्ठाओ अण्णमण्ण- अन्योन्यसंबद्धस्पृष्टाः अन्योन्यघटत्वेन । स्पृष्ट, अन्योन्य एकीभूत बनी हुई हैं ? घडत्ताए चिट्ठति ? तिष्ठन्ति? हंता चिट्ठति। हन्त तिष्ठन्ति। हां, बनी हुई हैं। चक्किया णं गोयमा ! केई तासु 'चक्किया' गौतम! कश्चित् तासु गौतम ! क्या कोई उन प्रदीप लेश्याओं में पदीवलेस्सासु आसइत्तए वा जाव प्रदीपलेश्यासु आसितुं वा यावत् बैठने यावत् करवट बदलने में समर्थ है? तुयट्टित्तए वा ? त्वग्वर्तितुं वा? भगवं! नो इणढे समझे। अणंता भगवन्! नो अयमर्थः समर्थः । अनन्ताः भगवन् ! यह अर्थ संगत नहीं है। वहां पुणत्थ जीवा ओगाढा। पुनरत्र जीवाः अवगाढाः। अनंत जीव अवगाढ हैं। से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते यावत् गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा अणंता पुणत्य जीवा ओगाढा॥ अनन्ताः पुनरत्र जीवाः अवगाढाः । है-यावत् वहां अनंत जीव अवगाढ हैं। भाष्य १. सूत्र ८६-८७ प्रयत्न किया है। दीए का प्रकाश मूर्त होता है फिर भी उसमें आसन, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये शयन आदि की क्रियाएं संभव नहीं होती। द्रष्टव्य भगवई-७/२१६ तीनों अमूर्त हैं इसलिए इनमें आसन, शयन आदि की क्रियाएं संभव का भाष्य। नहीं होतीं। सूत्रकार ने दीए के प्रकाश के दृष्टांत से इसे समझाने का लोय-पदं लोक-पदम् लोक-पदम् ८८. कहि णं भंते ! लोए बहसमे, कहिणं कुत्र भदन्त! लोकः बहुसमः, कुत्र ८५. भंते ! लोक कहां बहु सम है ? भंते! लोक भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते ? भदन्त! लोकः सर्ववैग्रहिकः प्रज्ञप्तः? कहां सर्व लघु प्रज्ञप्त है? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए । गौतम! अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितनउवरिमहेछिल्लेसु खुडगपयरेसु, एत्य णं उपरितन-अधस्तनेषु 'खुड्डग' प्रतरेषु अधस्तन-इन दो क्षुल्लक प्रतरों में यह लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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