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________________ २०१ श. १४ : उ.५ : सू. ५६-५८ भगवई ५६. असुरकुमारे णं भंते! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? गोयमा! अत्यंगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा॥ असुरकुमारः अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? गौतम! अस्त्येकक: व्यतिव्रजति, अस्त्येककः नो व्यतिव्रजति। ५६. भंते! क्या असुरकुमार अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है? गौतम! कोई जाता है, कोई नहीं जाता। ५७. से केणद्वेणं जाव नो वीइवएज्जा? तत् केनार्थेन यावत् नो व्यतिव्रजेत्? ५७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-यावत् कोई असुरकुमार अग्निकाय के बीचोंबीच होकर नहीं जाता? गोयमा! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, गौतम! असुरकुमाराः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, गौतम! असुरकुमार दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, तं जहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य, तद् यथा-विग्रहगतिसमापन्नकाः च, जैसे-विग्रह गति समापन्नक और अविग्रह गति अविग्गहगतिसमावन्नगा य। अविग्रहगतिसमापन्नकाः च। समापन्नक। तत्थ णं जे से विग्गहगतिसमावन्नए तत्र यः सः विग्रहगतिसमापन्नकः जो विग्रह गति समापन्नक असुरकुमार हैं, वे असुरकुमारे से णं-एवं जहेव नेरइए जाव असुरकुमारः सः-एवं यथैव नैरयिकः । नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं, यावत् वह शस्त्र कमइ। यावत् क्रामति। से आक्रांत नहीं होता। तत्थ णं जे से अविग्गहगतिसमावन्नए तत्र यः स; अविग्रहगतिसमापन्नकः जो अविग्रह गति समापन्नक हैं, उनमें कोई असुरकुमारे से णं अत्थेगतिए असुरकुमारः सः अस्त्येककः अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा, अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्, नहीं जाता। अत्यंगतिए नो वइवएज्जा। अस्त्येकक: नो व्यतिव्रजेत्। जे णं वीइवएज्जा से णं तत्य यः व्यतिव्रजेत स तत्र धमेत? जो बीचोंबीच होकर जाता है, क्या वह झियाएज्जा? जलता है? नो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं नो अयमर्थंः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं यह अर्थ संगत नहीं है। यह शस्त्र से आक्रांत कमइ। से तेणटेणं एवं जाव क्रामति। तत् तेनार्थेन एवं यावत् नहीं होता। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा थणियकुमारा। एगिदिया जहा नेरइया॥ स्तनितकुमाराः। एकेन्द्रियाः यथा है-यावत् कोई असुरकुमार अग्निकाय के नैरयिकाः। बीचोंबीच होकर नहीं जाता। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार की वक्तव्यता। एकेन्द्रिय नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। भाष्य १. सूत्र ५६-५७ विषय में वृत्तिकार ने विमर्श किया है। स्थावर काय में अग्नि और असुरकुमार में उत्पन्न होने के पश्चात् कोई मनुष्य लोक में आता वायु-ये गति त्रस हैं इसलिए इनका अग्निकाय के बीचोंबीच होकर है, वह अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है। वे सब मनुष्य लोक में जाना प्रत्यक्ष है किन्तु आगम में लब्धि-त्रस ही विवक्षित हैं। नहीं आते इसलिए यह नियम का विकल्प है। जो मनुष्य लोक में आता इसी प्रकार वायु सचित्त पृथ्वी को भी अग्नि के मध्य होकर ले है, वह अग्निकाय से दग्ध और अग्नि-शस्त्र से आक्रांत नहीं होता। जाती है। यह भी स्पष्ट है किन्तु यहां स्वतंत्रतापूर्वक होने वाली गति एकेन्द्रिय की वक्तव्यता नैरयिक की भांति बतलाई गई है। वृत्तिकार की विवक्षा है। इस विषय में वृत्तिकार ने चूर्णिकार का मत भी उद्घत ने बतलाया है-उत्पत्ति स्थान में अवस्थित एकेन्द्रिय जीव स्थावर होने किया है।' के कारण अग्निकाय के बीचोंबीच होकर नहीं जाते। इस नियम के ५८. बेइंदिया णं भंते! अगणिकायस्स द्वीन्द्वियाः भदन्त! अग्निकायस्य मझमज्झेणं वीइवएज्जा? मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि, नवरं- यथा असुरकुमाराः तथा द्वीन्द्रियोऽपि, जे णं बीइवएज्जा से णं तत्थ नवरम्-यः व्यतिव्रजेत् सः तत्र धमेत? झियाएज्जा? हंता झियाएज्जा। सेसं तं चेव। एवं जाव हन्त! धमति। शेषं तत् चैव। एवं यावत् चउरिदिए॥ चतुरिन्द्रियः। ५८. भंते! क्या द्वीन्द्रिय अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है? जैसे-असुरकुमार वैसे द्वीन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जो जाता है, क्या वह जलता है? हां, जलता है। शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता। १. भ. वृ. १४/५६-५७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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