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भगवई
श. १४ : उ. ५ : सू. ५६-६१
२०२ ५६. पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते! पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक: भदन्त!
अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइ- अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्? वएज्जा ? गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएज्जा, गौतम! अस्त्येककः व्यतिव्रजेत्, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा॥
अस्त्येककः नो व्यतिव्रजेत्।
५६. भंते! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक-अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है?
गौतम! कोई जाता है, कोई नहीं जाता।
६०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-विग्रह गति समापन्नक और अविग्रह गति समापन्नक। विग्रह गति समापन्नक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। यावत् वह शस्त्र से आक्रान्त नहीं होता। अविग्रह गति समापन्नक पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ऋद्धि प्राप्त, अऋद्धि प्राप्त। जो ऋद्धि प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक हैं, उनमें कोई अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई नहीं जाता। जो बीचोंबीच होकर जाता है क्या वह जलता
है?
६०. से केणढेलं?
तत् केनार्थेन? गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया गौतम! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगति- द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-विग्रहसमावनगा य, अविग्गहगतिसमावनगा गतिसमापनकाः च, अविग्रहगतिय। विग्गहगतिसमावन्नए जहेव नेरइए समापन्नकाः च। विग्रहगतिसमापन्नकाः जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। यथैव नैरयिकः यावत् नो खलु तत्र शस्त्रं अविग्गहगतिसमावन्नगा पंचिंदिय- क्रामति। अविग्रहगतिसमापन्नकाः तिरिक्वजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः जहा-इड्डिष्पत्ता य, अणिड्डिष्पत्ता य। प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-ऋद्धिप्राप्ताः च, तत्थ णं जे से इहिप्पत्ते पंचिंदिय- अनर्द्धिप्राप्ताः च। तत्र यः सः ऋद्धिप्राप्तः तिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः सः अस्त्येकक: अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीइवएज्जा, अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत, अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा।
अस्त्येकक: नो व्यतिव्रजेत्। जे णं बीइवएज्जा से णं तत्थ यः व्यतिव्रजेत् सः तत्र धमेत्? झियाएज्जा? नो इणद्वे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं, कमइ। तत्थ णं जे से अणिहिप्पत्ते क्रामति। तत्र यः सः अनर्द्धिप्राप्तः पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकः सः अस्त्येकक: अत्थेगतिए अगणिकायस्स मझमझेणं अग्निकायस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत्। वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा। अस्त्येककः नो व्यतिव्रजेत्। जे णं वीइवएज्जा से णं तत्य यः व्यतिव्रजेत् सः तत्र धमेत्? झियाएज्जा? हंता झियाएज्जा। से तेणटेणं जाव नो हन्त धमेत। तत् तेनार्थेन यावत् नो वीइवएज्जा। एवं मणुस्से वि। वाणमंतर- व्यतिव्रजेत् एवं मनुष्योऽपि वानमन्तरजोइसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे॥ ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा असुर-
कुमारः।
यह अर्थ संगत नहीं है। वह शस्त्र से आक्रान्त नहीं होता। जो पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिक ऋद्धि प्राप्त नहीं है, उनमें कोई अग्निकाय के बीचोंबीच होकर जाता है, कोई नहीं जाता। जो बीचोंबीच होकर जाता है, क्या वह जलता
है?
हां, जलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् कोई नहीं जाता। इसी प्रकार मनुष्य की वक्तव्यता। वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र ५८-६०
क्षेत्र से बहिर्वर्ती है, उसके लिए वह संभव नहीं है। वहां अग्निकाय का ऋद्धि प्राप्त का अर्थ है वैक्रिय लब्धि संपन्न। मनुष्य लोकवर्ती अभाव है इसलिए मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अग्निकाय के बीचोंबीच पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक अग्निकाय के बीचोंबीच जा सकता है। जो मनुष्य नहीं जा सकते।
पञ्चणुब्भव-पदं
प्रत्यनुभव-पदम्
प्रत्यनुभव-पद ६१. नेरइया दस ठाणाई पञ्चणुम्भवमाणा नैरयिकाः दश स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः ६१. नैरयिक दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते विहरंति, तं जहा-अणिहा सद्दा, अणिवा विहरन्ति, तद्यथा-अनिष्टाः शब्दाः, हुए विहार करते हैं, जैसे-अनिष्ट शब्द, रूवा, अणिट्ठा गंधा, अणिट्ठा रसा, अनिष्टाः रूपाः, अनिष्टाः गन्धाः, अनिष्ट रूप, अनिष्ट गंध, अनिष्ट रस, अणिहा फासा, अणिट्ठा गती, अणिहा अनिष्टाः रसाः, अनिष्टाः स्पर्शाः, अनिष्ट स्पर्श, अनिष्ट गति, अनिष्ट स्थिति, ठिती, अणिढे लावण्णे, अणिढे जसे अनिष्टा गतिः, अनिष्टा स्थितिः, अनिष्ट लावण्य, अनिष्ट यशोकीर्ति और
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