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भगवई
कित्ती, अणि उट्ठाण-कम्म-बल-वीरियपुरिसक्कार-परक्कमे ।
६२. असुरकुमारा दस ठाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इट्ठे उहाण-कम्मबल-वीरिय- पुरिसक्कार- परक्कमे । एवं जाव थणियकुमारा ॥
६३. पुढविक्काइया छट्टाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इवाणिट्ठा फासा, इट्ठाणिट्ठा गती, एवं जाव पुरिसक्कार- परक्कमे । एवं जाव
वणस्सइकाइया ॥
६४. बेइंदिया सत्तद्वाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरति, तं जहा - इट्ठाणिट्ठा रसा, सेसं जहा एगिंदियाणं ॥
६५. तेइंदिया अट्टहाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्टाणिट्टा गंधा, सेसं जहा इंदियाणं ॥
६६. चउरिंदिया नवद्वाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा - इट्ठाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं ॥
६७. पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहासिद्दा जाव पुरिसक्कारपरक्कमे । एवं मणुस्सा वि, वाणमंतरजोइसिय- वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥
देवस्स उल्लंघण - पल्लंघण-पदं
६८. देवे णं भंते! महिडीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू
१. भ. ६ / १८३-१८५
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अनिष्टं लावण्यम्, अनिष्टं यशः कीर्तिः, अनिष्टः उत्थान - कर्म-बल-वीर्य
पुरुषकार - पराक्रमः ।
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असुरकुमाराः दशस्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथा - इष्टाः शब्दाः, इष्टाः रूपाः यावत् इष्टः उत्थान-कर्मबल-वीर्य-पुरुषकार-प -पराक्रमः । एवं यावत् स्तनितकुमाराः ।
पृथिवीकायिकाः षट् स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद् यथाइष्टानिष्टाः स्पर्शाः, इष्टानिष्टाः गतिः, एवं यावत् पुरुषकार-पराक्रमः एवं यावत् वनस्पतिकायिकाः ।
द्वीन्द्रियाः सप्त स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथा - इष्टानिष्टाः रसाः, शेषं यथा एकेन्द्रियाणाम् ।
त्रीन्द्रियाः अष्ट स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथा - इष्टानिष्टाः गन्धाः, शेषं यथा द्वीन्द्रियाणाम् ।
चतुरिन्द्रियाः नव स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति, तद् यथा इष्टानिष्टाः रूपाः, शेषं यथा त्रीन्द्रियाणाम् ।
पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः दश स्थानानि प्रत्यनुभवन्तः विहरन्ति तद् यथाइष्टानिष्टाः शब्दाः यावत् पुरुषकारपराक्रमः । एवं मनुष्याः अपि वानमंतर - ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा असुरकुमाराः ।
१. सूत्र ६१-६७
प्रस्तुत आलापक में चारों गति के जीवों के अनुभव का बहुत ही स्वाभाविक निरूपण किया गया है- नरक गति में जीव अनिष्ट शब्द, रूप आदि का अनुभव करते हैं और उनका पुरुषार्थ भी अनिष्ट होता
श. १४ : उ. ५ : सू. ६२-६८ अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार,
पराक्रम ।
देवस्य उल्लंघन - प्रलंघन-पदम् देवः भदन्त ! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः बाह्यकान् पुद्गलान् अपर्यादाय प्रभुः
६२. असुरकुमार दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हु विहार करते हैं, जैसे- इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत् इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार, पराक्रम । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता ।
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६३. पृथ्वीकायिक छह स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट-अनिष्ट स्पर्श, इष्ट-अनिष्ट गति, इसी प्रकार यावत् पुरुषकार, पराक्रम । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता ।
६४. द्वीन्द्रिय सात स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट अनिष्ट रूप शेष एकेन्द्रिय की भांति वक्तव्य है।
६५. त्रीन्द्रिय जीव आठ स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट-अनिष्ट गंध, शेष द्वीन्द्रिय की भांति वक्तव्य है।
भाष्य
है। देव गति में जीव इष्ट शब्द, रूप आदि का अनुभव करते हैं और उनका पुरुषार्थ भी इष्ट होता है।
६६. चतुरिन्द्रिय जीव नव स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे- इष्ट-अनिष्ट रूप, शेष त्रीन्द्रिय की भांति वक्तव्य है।
६७. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक जीव दस स्थानों का प्रत्यनुभव करते हुए विहार करते हैं, जैसे - इष्ट-अनिष्ट शब्द यावत् पुरुषकार, पराक्रम । इसी प्रकार मुनष्य की वक्तव्यता । वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं।
यह निरूपण प्रमुखता की दृष्टि से किया गया है।' द्रष्टव्य भगवई, ६ / ५-१४, १८३ - १८५ तथा ३ / ९२ का भाष्य ।
देव का उल्लंघन - प्रलंघन पद
६८. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान् ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव क्या बाहरी
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