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श. १४ : उ.५ : सू.६६,७०
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भगवई
तिरियपव्वयं वा तिरियभित्तिं वा तिर्यकपर्वतं वा तिर्यगभित्तिं वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा? उल्लंधितुं वा प्रलंधितुं वा?
पुद्गलों को ग्रहण किए बिना तिर्यक् पर्वत अथवा तिर्यक् भित्ति का एक बार उल्लंघन करने में अथवा बार-बार उल्लंघन करने में समर्थ है? यह अर्थ संगत नहीं है।
नो इणढे समझे॥
नो अयमर्थः समर्थः।
६६. देवे णं भंते! महिड्डीए जाव महेसक्खे देवः भदन्त! महर्द्धिकः यावत् महेशाख्यः ६६. भंते! महान् ऋद्धि यावत् महान्
बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू बाह्यकान् पुदगलान पर्यादाय प्रभः ऐश्वर्यशाली के रूप में प्रख्यात देव क्या तिरियपब्वयं वा तिरियभित्तिं वा तिर्यकपर्वतं वा तिर्यगभित्तिं वा बाहरी पुद्गलों को ग्रहण कर तिर्यक् पर्वत उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ? उल्लंधितुं वा प्रलंधितुं वा?
अथवा तिर्यक् भित्ति का एक बार उल्लंघन करने में अथवा बार-बार उल्लंघन करने में
समर्थ है? हंता पभू॥ हन्त प्रभु।
हां, समर्थ है।
भाष्य
१. सूत्र ६८-६६
विक्रिया के लिए बाह्य पुद्गलों का ग्रहण आवश्यक है। इस नियम की जानकारी के लिए द्रष्टव्य भगवई ६/१६३-१६५।
तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई ३/१८६-१८७
शब्द विमर्श
तिर्यक पर्वत-मार्ग का अवरोध करने वाला पर्वत।
तिर्यक भित्ति-प्राकार आदि की भींत अथवा पर्वत खण्ड।' तिर्यक् भित्ति का प्रयोग आचारांग में भी मिलता है।
७०. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
७०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
१. भ. द. १४/६८-तिरियपव्वयं-तिरश्चीनं पर्वतं गच्छतो मार्गावरोधकं........तिर्यगभित्ति-तिरश्चीनां प्राकारवरण्डिकादिभित्तिं पर्वतखण्डं वेति। २. आयोरा ६/५
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