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________________ श. १५ : सू. १०१ गोसालस्स भगवंतं पड़ अक्कोसपुव्वं ससिद्धंतनिरूपण-पदं १०१. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयमहं परिकहेड, तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्खमित्ता आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे सिग्घं तुरियं सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी - सुदु णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी, साहू णं आउसो कासवा ! ममं एवं वयासी - गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासी । जेणं से गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुक्के सुक्का - भिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोसु देवत्ताए उववन्ने, अहणं उदाई नामं कुंडियायणीए अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विष्पजहामि, विष्पजहित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुष्पविसामि, अणुष्पविसित्ता इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि । जे वि आई आउसो कासवा ! अम्हं समयंसि केइ सिज्झिंसु वा सिज्झति वा सिज्झिस्संति वा सव्वे ते चउरासीतिं महाकष्पसयसहस्साई, सत्त दिव्वे, सत्त संजूहे, सत्त सण्णिगन्भे, सत्त पट्टपरिहारे, पंच कम्मणि सय सहस्साई सहिं च सहस्साई छच्च सए तिण्णि य कम्मंसे अणुवेणं खवत्ता तपच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा । से जहा वा गंगा महानदी जओ पवूदा, जहिं वा पज्जुबत्थिया, एस णं अद्धा Jain Education International २८८ गोशालस्य भगवन्तं प्रति आक्रोशपूर्वं स्वसिद्धान्त - निरूपण -पदम् यावत् च आनन्दः स्थविरः गौतमादिभ्यः श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः एतमर्थ परिकथयति तावत् च सः गोशालः मंखलिपुत्रः हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य आजीविकसंघपरिवृतः महान्तम् अमर्षं वहमानः शीघ्रं त्वरितं श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव कौष्ठकं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य उदूरसामन्ते स्थित्वा श्रमण भगवन्तं महावीरम् एवमवादीत्-सुष्ठु आयुष्मन् काश्यप ! माम् एवमवादीत् साधु आयुष्मन् काश्यप ! माम् एवमवादीत् - गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी, गोशालः मंखलिपुत्रः मम धर्मान्तेवासी । यः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तव धर्मान्तेवासी सः शुक्लः शुक्लाभिजात्याः भूत्वा कालमासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपन्नः, अथ उदायी नाम कौण्डिकायणीयस्य अर्जुनस्य गौतमपुत्रस्य शरीरकं विप्रजहामि, विप्रजहाय गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य शरीरकम् अनुप्रविशामि अनुप्रविश्य इमं सप्तमं 'पउट्ट परिहारं ' परिहरामि । येऽपि 'आई' आयुष्मन् काश्यप ! अस्माकं समये केचित् असैत्सुः वा सिध्यन्ति वा सेत्स्यन्ति वा सर्वे ते चतुरशीतिः महाकल्पशतसहस्राणि सप्त दिव्यान् सप्त संयूथान्, सप्त संज्ञिगर्भान्, सप्त 'पउट्ट परिहारे' पञ्च कर्माणि शतसहस्राणि षष्ठिः च सहस्राणि षड् च शतानि त्रीन् च कर्माशान् अनुपूर्वेण क्षपयित्वा ततः पश्चात् सिध्यन्ति 'बुज्झति' मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानाम् अन्तम् अकार्षुः वा कुर्वन्ति वा करिष्यन्ति वा । अथ यथा वा गंगा महानदी यतः प्रव्यूढा, यत्र वा पर्युपस्थिता एषः अध्वा For Private & Personal Use Only भगवई गोशाल का भगवान के प्रति आक्रोश-पूर्वक स्वसिद्धान्त - निरूपण-पद १०१. जब आनंद स्थविर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को यह अर्थ कहा, तो मंखलिपुत्र गोशाल ने हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर आजीवक संघ से संपरिवृत होकर महान् का भार ढोता हुआ शीघ्र त्वरित गति से श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवान् महावीर से इस प्रकार कहा- आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मेरे विषय में अच्छा कहा, आयुष्मन् काश्यप ! तुमने मेरे विषय में इस प्रकार साधु कहा- मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है, मंखलिपुत्र गोशाल मेरा धर्मान्तेवासी है। जो मंखलिपुत्र गोशाल तुम्हारा धर्मान्तेवासी था, वह शुक्ल शुक्लाभिजात होकर कालमास में मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देवरूप में उपपन्न हुआ है। मैं कोण्डिकायन गौत्रीय हूं, मेरा नाम उदायी है। मैंने गौतम पुत्र अर्जुन के शरीर को छोड़ा, छोड़कर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर यह सातवां 'पोट्ट परिहार' किया है। आयुष्मन् काश्यप ! हमारे सिद्धान्त के अनुसार र जो सिद्ध हुए हैं, जो सिद्ध हो रहे हैं, जो सिद्ध होंगे, वे सब चौरासी लाख महाकल्प, सात दिव्य, सात संयूथ, सात संज्ञी गर्भ, सात पोट्ट परिहार, पांच लाख साठ हजार छह सौ तीन कर्मों को क्रमशः क्षय कर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत हुए हैं सब दुःखों को अंत किया है, करते हैं, अथवा करेंगे। जैसे महानदी गंगा जहां से प्रवृत्त हुई है, और जहां पर्यवसित हुई है, वह मार्ग लंबाई में पांच www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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