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________________ भगवई २८७ श. १५ : सू. ६६,१०० मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं तत् प्रभुः आनन्द! गोशालः मंखलिपुत्रः भासरासिं करेत्तए, विसए णं आणंदा! तपसा तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं गोसालस्स मखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं भस्मराशिं कर्तुम्, विषयः आनन्द! एगाहचं कूडाहचं गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य तपसा भासरासिं करेत्तए, समत्थे णं आणंदा! तेजसा एकाहत्यं कूटाहत्यं भस्मराशिं गोसाले मंखलिपुत्ते तवेणं तेएणं एगाहचं कर्तुम्, समर्थः आनन्द ! गोशालः । कूडाहचं भासरासिं करेत्तए, नो चेव णं मंखलिपुत्रः तपसा तेजसा एकाहत्यं अरहते भगवंते, पारियावणियं पुण कूटाहत्यं भस्मराशिं कर्तुम्, नो चैव करेज्जा॥ अर्हतः भगवतः, पारितापनिकी पुनः कुर्यात्। मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करने में प्रभु है, आनन्द ! अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करना मंखलिपुत्र गोशाल का विषय है, आनन्द! मंखलिपुत्र गोशाल अपने तपःतेज से एक प्रहार में कूटाघात की भांति राख का ढेर करने में समर्थ है। किन्तु वह अर्हत् भगवान् को (ऐसा) नहीं कर सकता, (केवल) उन्हें परितापित कर सकता है। आणंदथेरेण गोयमाईणं अणुण्णवण-पदं आनन्दस्थविरेण गौतमादीनाम् अनुज्ञापन-पदम् ६६. तं गच्छ णं तुमं आणंदा! गोयमाईणं तत् गच्छ त्वम् आनन्द! गौतमादिभ्यः समणाणं निग्गंथाणं एयमढें परिकहेहि- श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः एतमर्थं परिकथय- मा णं अज्जो! तुम्भं केई गोसालं मा आर्य! युष्मत्स कोऽपि गोशालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए मंखलिपुत्र धार्मिकया प्रतिचोदनया पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणाए प्रतिचोदयतु, धार्मिकया प्रतिसारणया पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं प्रतिसारयतु, धर्मिकेन प्रत्युपचारेण पडोयारेउ, गोसाले णं मखलिपुत्ते प्रत्युपचारयतु, गोशालः मंखलिपुत्रः समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छं विपडिवन्ने। श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः विप्रतिपन्नः। आनन्द स्थविर द्वारा गौतम आदि को अनुज्ञापन-पद १६.आनंद! इसलिए तुम जाओ,गौतम आदि श्रमण निग्रन्थों को यह अर्थ कहो-आर्यो! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रतिप्रेरणा से प्रतिप्रेरित मत करो, धार्मिक प्रतिस्मरण से प्रतिस्मारित मत करो, धार्मिक प्रत्युपचार-तिरस्कार से प्रत्युपचारित मत करो। मंखलिपुत्र गोशाल श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्व-विप्रतिपन्न है। १००. तए णं से आणंदे थेरे समणेणं ततः सः आनन्दः स्थविरः श्रमणेन भगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे समणं भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति भगवं महावीरं बंदइ नमसइ, बंदित्ता श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमंसित्ता जेणेव गोयमादी समणा नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव निग्गंथा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोयमादी समणे निग्गंथे आमंतेति, उपागच्छति, उपागम्य गौतमादीन् आमंतेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अज्जो! श्रमणान् निर्ग्रन्थान् आमन्त्रयति आमन्त्र्य छट्टक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया एवमवादीत्-एवं खलु आर्य! महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे सा- षष्ठक्षपणपारणके श्रमणेन भगवता वत्थीए नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई महावीरेण अभ्यनुज्ञाते सति श्रावस्त्यां कुलाई तं चेव सव्वं जाव गोयमाईणं नगर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि समणाणं निग्गंथाणं एयमé परिकहेहि, तं तत् चैव सर्वं यावत् गौतमादिभ्यः मा णं अज्जो! तुम्भं केई गोसालं श्रमणेभ्यः निर्गन्थेभ्यः एतमर्थं परिकथय, मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए तत् मा आर्य! युष्मत्सु कोऽपि गोशालं पडिचोएउ, धम्मियाए पडिसारणयाए मंखलिपुत्र धार्मिकया प्रतिचोदनया पडिसारेउ, धम्मिएणं पडोयारेणं प्रतिचोदयतु, धार्मिकया प्रतिसारणया पडोयारेउ, गोसाले णं मखलिपुत्ते प्रतिसारयतु, धर्मिकेन प्रत्युपचारेण समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिवन्ने। प्रत्युपचारयतु, गोशालः मंखलिपुत्रः श्रमणेभ्यः निर्ग्रन्थेभ्यः मिथ्या विप्रतिपन्नः। १००. श्रमण भगवान् महावीर के इस प्रकार कहने पर आनन्द स्थविर ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर जहां गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहां आया, आकर गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित किया, आमंत्रित कर इस प्रकार कहा-आर्यो! मैं बेले के पारण में श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा से श्रावस्ती नगर के उच, नीच तथा मध्यम कुलों में यावत् गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को यह अर्थ कहो-आर्यो! तुम मंखलिपुत्र गोशाल को धार्मिक प्रति प्रेरणा से प्रतिप्रेरित मत करो, धार्मिक प्रतिस्मारणा से प्रतिस्मारित मत करो, धार्मिक प्रत्युपचार तिरस्कार से प्रत्युपचारित मत करो। मंखलिपुत्र श्रमण निर्ग्रन्थों के प्रति मिथ्यात्वविप्रतिपन्न है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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