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________________ भगवई श. १२ : उ.५: सू. १०२-१०७ १०६. अह भंते ! लोभे, इच्छा, मुच्छा, अथ भदन्त! लोभः, इच्छा, मूर्छा, १०६. भंते ! लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, कंखा, गेही, तण्हा, भिज्झा, कांक्षा, गृद्धिः, तृष्णा, भिध्या, तृष्णा, भिध्या, अभिध्या, आशीष, अभिज्झा, आसासणया, पत्थणया, अभिध्या, आशंसनं, प्रार्थना, लालपनं, प्रार्थना, लालपनता, कामाशा, भोगाशा, लालप्पणया, कामासा, भोगासा, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी और राग-ये जीवियासा, मरणासा, नंदिरागे-एस णं मरणाशा नन्दी-रागः-एषः कतिवर्णः कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विगन्धः, पञ्चरसः, गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चउफासे पण्णत्ते॥ चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः । चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। १०७. अह भंते ! पेज्जे, दोसे, कलहे, अथ भदन्त! प्रेयः, दोषः, कलहः, १०७. भंते ! प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, अब्भक्खाणे, पेसुन्ने, परपरिवाए, अभ्याख्यानम्, पैशुन्यम्. परपरिवादः, पैशुन्य, परपरिवाद, अरतिरति, मायामृषा अरतिरती, मायामोसे, मिच्छादसण- अरतिरतिः, मायामृषा, मिथ्यादर्शन- और मिथ्यादर्शन शल्य-ये कितने वर्ण सल्ले-एस णं कतिवण्णे जाव। शल्यः-एषः कतिवर्णः यावत् कति- यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं? कतिफासे पण्णते ? स्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, गौतम! पञ्चवर्णः, द्विगन्धः, पञ्चरसः, गौतम ! पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चउफासे पण्णत्ते॥ चतुस्पर्शः प्रज्ञप्तः। चार स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं। भाष्य १. सूत्र १०२-१०७ के द्वारा प्रकाशित करना। जीव और पुद्गल एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जीव के अक्षमा-दूसरे के अपराध को सहन न करना। प्रभाव से पुद्गल में परिवर्तन होता है और पुद्गल के प्रभाव से जीव में संज्वलन-क्रोधाग्नि से प्रज्वलित होना। परिवर्तन होता है। प्रस्तुत प्रकरण में पुदगल से प्रभावित जीव की कलह-जोर से या अभद्र शब्दों में आपस में बोलना। अवस्थाओं के विषय में एक संवाद प्रस्तुत है। चाण्डिक्य-आकृति को रौद्र बनाना। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के गुण हैं। प्राणातिपात भण्डन-दंड आदि के द्वारा युद्ध करना। तत्त्वार्थभाष्यानुआदि जीव की अवस्थाएं हैं। यहां उपचार वश प्राणातिपात आदि से सारिणी में इसका अर्थ कलह किया गया है।' जनित कर्म अथवा प्राणातिपात की वृत्ति का जनक कर्म के विषय में विवाद-विरोधी स्वीकृति से व्यवहृत होने वाला वचन। वर्ण आदि की जिज्ञासा की गई है। इसके उत्तर भी कर्म पुद्गल के क्रोध एक सामान्य प्रज्वलनात्मक भाव है। कोप और रोष आधार पर दिए गए हैं। कर्म के पुदगलों में पांच वर्ण, दो गंध, पांच इसकी विशेष अवस्थाएं हैं। दोष आदि क्रोध के कार्य हैं।' रस और चार स्पर्श होते हैं। मान-आत्म-पूजा की आकांक्षा से उत्पन्न अहंकार।' शब्द-विमर्श मद-हर्ष, मादक वस्तु के सेवन से होने वाली मदावस्था की क्रोध-प्रज्वलनात्मक भाव। भांति, जिस अवस्था में अस्पष्ट बोलने की स्थिति बन जाती है, कोप-क्रोध के उदय से होने वाला स्वभाव का विचलन। उसका नाम मद है। रोष-क्रोध की संतति। दर्प-बल से उत्पन्न अहंकार। दोष-अप्रीति, अपने को या दूसरे को दूषित करना। स्तम्भ-नम्रता का अभाव, न झुकने की मनोवृत्ति।' तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी में इसका अर्थ है-द्वेष के परिणाम को वचन गर्व-शौण्डीर्य, जाति आदि का अहंकार। १. भ. वृ. १२/१०२-प्राणातिपातजनितं तज्जनकं वा चारित्रमोहनीयं क्रोधकार्य, द्वेषो वाऽप्रीतिमात्रम् अक्षमा- परकृतापराधरयासहनम्, कर्मोपचारात् प्राणातिपात एव, एवमुत्तरत्रापि। संज्वलनो-मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनं, कलहो-महता शब्देनान्यो२. वही, १२/१०२-चउफासेत्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णाख्याश्चत्वारः स्पर्शाः ऽन्यमसमञ्जसभाषणं एतच क्रोधकार्य, चाण्डिक्यं-रौद्राकारकरणं, सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवंति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति। एतदपि क्रोधकार्यमेव, भण्डनं दण्डादिभियुद्धं, एतदपि क्रोधकार्यमेव, ३. त. सू. भा. वृ. ८/१०-द्वेषणं द्वेषः तत्परिणामस्य वचनद्वारेण प्रकाशनात् विवादो विप्रतिपत्तिसमुत्थवचनानि, इदमपि तत्कार्यमेवेति। क्रोधैकार्थाः निर्देशनात्। वैते शब्दाः । ४. वही,-भण्डनं कलहः। ६. त. सू. भा. वृ. ८/१० की टीका-सर्वदात्मपूजाऽऽकाक्षित्यात् मानः । ५. भ. पृ. १२/१०३-कोहेत्ति क्रोधपरिणामजनकं कर्म, तत्र क्रोध इति ७. वही,-दर्पो बलकृतः। सामान्यं नाम, कोपादयस्तु तद्विशेषाः। तत्र कोपः क्रोधोदयात् स्वभावात् ८. वही टीका-स्तंभनात् स्तंभः अवनतेरभावात्। चलनमात्रे, रोषः-क्रोधस्यैवानुबंधो, दोषः आत्मनःपरस्य वा दूषणं एतच ६. वही टीका-गर्यो जात्यादिः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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