________________
श. १२:उ.५: सू. १०७
भगवई
आत्मोत्कर्ष-दूसरों से अपने को बड़ा मानना।
परपरिवाद-अहंकार की वह मनोदशा, जिसके वशीभूत मनुष्य दूसरों की हीनता प्रदर्शित करता है।
उत्कर्ष-उत्कृष्टता की भावना।' अपोत्कर्ष, अपकर्ष-अहंकारवश दूसरे की हीनता का प्रदर्शन।
उन्नत-उन्नति, न झुकना, अड़कन। वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ उन्नय किया है-मानवश नय और नीति का अतिक्रमण।
उन्नाम-अहंकारवश नत न होना। दुर्नाम-दोषपूर्ण नमन।
वृत्तिकार के अनुसार स्तंभ आदि मान के कार्य अथवा पर्यायवाची नाम हैं। मान उत्कर्ष का भाव है। मद और दर्प इसकी विशेष अवस्थाएं हैं। स्तंभ आदि मान के कार्य हैं।
माया-छिपाने की मनोवृत्ति। उपधि आदि उसके भेद हैं।
उपधि-ठगने के लिए वंचनीय पुरुष के पास जाने की चेष्टा', प्रछन्न व्यवहार।
निकृति-आदर प्रदर्शित कर दूसरे को ठगना, पूर्व कृत माया को ढांकने के लिए दूसरा मायाजाल रचना। भाष्यानुसारिणी में इसका अर्थ दूसरे को तिरस्कृत करने के लिए मायाजाल रचना किया है।
वलय-प्रवंचना के भाव से वलय की तरह वक्र वचन बोलना अथवा चेष्टा करना।
ग्रहण-दूसरे को व्यामूद बनाने के लिए प्रयुक्त वचन-जाल। णूम-दूसरे को ठगने के लिए निम्नता का आश्रय लेना। कल्क-हिंसा आदि के लिए दूसरे को ठगने का अभिप्राय।
कुरुक-दूसरों को विमुग्ध बनाने के लिए किया जाने वाला वेश १. सूय. १/२/५१ का टिप्पण। २. भ. पृ. १२/१०४.-'माणेत्ति' मानपरिणामजनकं कर्म, तत्र मान इति
सामान्य नाम, मदादयस्तु तद्विशेषाः। तत्र मदो हर्षमात्रं, दो दृप्तता, स्तंभः-अनम्रता, गर्व-शौण्डीर्य, अत्तुक्कोसे त्ति आत्मनः परेभ्यः सकाशाद् गुणैरुत्कर्षणम्-उत्कृष्टताऽभिधानं, परपरिवादः--परेषामपवदनं परिपातो वा गुणेभ्यः परिपातनमिति, उक्कोसे ति उत्कर्षणं आत्मनः परस्य वा मनाक् क्रिययोत्कृष्टताकरणं उत्काशनं वा-प्रकाशनमभिमानात् स्वकीयसमृद्ध्यादेः, अवक्काशे ति अपकर्षणमवकर्षणं वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारंभात् कुतोऽपि व्यावर्त्तनमिति अप्रकाशो वाऽभिमानादेवेति, उण्णए ति उच्छिन्नं नतं- पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो वा नमोनीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः 'उण्णामे' ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादुन्नमनं, 'दुन्नामे' ति मदादुष्टं नमनं दुर्नाम इति, इह च स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचका वैते
ध्वनय इति। ३. त. सू. भा. वृ. ८/१० की टीका-बाह्यचेष्टयोपधीयते बाह्यत इत्यु
पधिरन्यथापरिणामश्चित्तस्य। ४. भ. वृ. १२/१०५-'माय' ति सामान्य उपध्यादयस्तभेदाः। तत्र 'उवहि'
त्ति उपधीयते येनासावुपधिः-वञ्चनीयसमीपगमनहेतुर्भावः, "नियडि ति नितरां करणं निकृतिः-आदरकरणेन परवञ्चनं पूर्वकृतमायाप्रच्छादनार्थ
परिवर्तन, बहुरूपिया का कार्य।
जिम्ह-दूसरों को ठगने के लिए किया जाने वाला मंदता अथवा निष्क्रियता का प्रदर्शन।
किल्विष-ज्ञान और ज्ञानी के विषय में किया जाने वाला माया-जाल।
आचरण-हिंसा करने के लिए किया जाने वाला अहिंसा का आचरण। उदाहरण स्वरूप
पश्य लक्ष्मण ! पंपायां, बकः परमधार्मिकः।
दृष्ट्वा दृष्ट्वा पदं धत्ते, जीवानां वधशंकया। गृहन-अपने स्वरूप को छिपाने की वृत्ति। वंचन-दूसरे को ठगना। प्रतिकुंचन-वचन की वक्रता।
सातिओग–अविश्वास का संबंध, मूल्यवान द्रव्य के साथ कम मूल्य वाली वस्तु का किया जाने वाला मिश्रण, प्रतिरूपकरण की क्रिया।
लोभ-रागात्मक प्रवृत्ति। इच्छा आदि उसके भेद हैं। इच्छा-अभिलाषा, तीन लोक को पाने की अभिलाषा।'
मूर्छा-पदार्थ के संरक्षण में होने वाला अनुबंध, प्रकृष्ट मोह वृत्ति।
कांक्षा-अप्राप्त पदार्थ की आशंसा। जो नहीं है, भविष्य में उसे पाने की इच्छा।
गृद्धि प्राप्त पदार्थ में होने वाली आसक्ति, प्राप्त इष्ट वस्तुओं में अभिरक्षण की प्रवृत्ति।
तृष्णा-प्राप्त पदार्थ का व्यय न हो, इस प्रकार की इच्छा। भिध्या-विषयों के प्रति होने वाली सघन एकाग्रता।
अभिध्या-विषयों के प्रति होने वाली विरल एकाग्रता। या मायान्तरकरणं, 'वलए' ति येन भावेन वलयमिव वक्रं वचनं चेष्टा वा प्रवर्तते स भावो वलयं, 'गहणे' ति परव्यामोहनाय यवचनजालं तद्गहनमिव गहनं, णूमे त्ति परवञ्चनाय निम्नताया निम्नस्थानस्य वाऽश्रयणं तन्नूमं ति कक्केत्ति कल्कं हिंसादिरूपं पापं तन्निमित्तो यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्कमवोच्यते 'कुरूए' ति कुत्सिते यथा भवत्येवं रूपयति-विमोहयत्ति यत्तत् कुरुपं भाण्डादि कर्म माया विशेष एव 'जिम्हेत्ति' येन परवञ्चनाभिप्रायेण जैह्मयं-क्रियासु मान्द्यमालंबते स भायो जेझयम वेति 'किब्बिसे' ति यतो मायाविशेषाज्जन्मान्तरेऽवैव का भवे किल्विषः-किल्विषिको भवति स किल्विष एवेति, आयरणयत्ति यतो मायाविशेषादादरण-अभ्युपगम कस्याऽपि वस्तुनः करोत्यसावादरणं, प्रत्ययस्य च स्वार्थिकत्वाद् आयरणया, आचरणं वा परप्रतारणाय विविधक्रियाणामाचरणं, गूढनया गूहनं गोपायनस्वरूपस्य, वंचणया-वंचनं परस्य प्रतारणं, पलिउंचणया प्रतिकुञ्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वञ्चनस्य खण्डनं, साइजोगेत्ति अविसम्भः संबंधः सातिशयेन वा द्रव्येण निरति
शयस्य योगास्तत्प्रतिरूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्थाः वैते ध्वनय इति। ५. त. सू. भा. वृ. ८/१० की टीका-इच्छाभिलाषरत्रैलोक्यविषयः। ६. वही, .......मूळ प्रकर्षप्राप्ता मोहवृद्धिः। ७. वही,.......भविष्यत्कालोपादानविषयाकांक्षा।
ना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org