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भगवई
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श. १२ : उ. ५ : सू. १०८-१११
भिध्या में होने वाली एकाग्रता में दृढ़ अभिनिवेश होता है इसलिए वह ध्यान की कोटि में चली जाती है। अभिध्या में होने वाली एकाग्रता में अभिनिवेश मंद रहता है इसलिए वह चित्त लक्षण वाली
आशीष-वस्तु-प्राप्ति के लिए दिया जाने वाला आशीर्वाद। प्रार्थना-दूसरे से इष्ट वस्तु की याचना करना। लालपनता-प्रार्थना को बार-बार दोहराना। कामाशा-शब्द, रूप आदि को पाने की इच्छा। भोगाशा-गंध आदि को पाने की इच्छा। जीविताशा-जीवित रहने की इच्छा। मरणाशा-मरने की इच्छा। नंदि-समृद्धि में होने वाला हर्ष।' राग-रञ्जनात्मक मनोवृत्ति।
प्रस्तुत प्रकरण में क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची नाम निर्दिष्ट हैं। क्रोध के दस, मान के बारह, माया के पंद्रह और लोभ के सतरह-इनकी समन्वित संख्या चौपन है। कोश की दृष्टि से ये क्रोध आदि के एकार्थक नाम हैं। समभिरूढ़ नय की दृष्टि से विचारणा करने पर प्रत्येक शब्द का अपना स्वतंत्र अर्थ है। अभयदेवसूरि ने भगवती की वृत्ति में नंदि-राग को एक शब्द मानकर उसकी व्याख्या की है। समवायांग के आधार पर ये दोनों पृथक् होने चाहिए। एक मानने पर चौपन की संख्या की संगति नहीं बैठती। तुलना के लिए द्रष्टव्य समवाओ ५२/१। प्रश्न व्याकरण में असत्य वचन के तीस नाम बतलाए गए हैं। उस प्रकरण में माया के निम्न निर्दिष्ट शब्दों का उल्लेख है-कक्कणा, वञ्चना, साती, किल्विष, वलय, गहन और णूम। सूत्रकृतांग में प्रकीर्ण रूप में अनेक शब्द उपलब्ध हैं।
१०८. अह भंते ! पाणाइवायवेरमणे, जाव अथ भदन्त! प्राणातिपातविरमणं
परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे जाव यावत् परिग्रहविरमणम्, क्रोधविवेकः मिच्छादसणसल्लविवेगे- एस णं यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेकः-एषः कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? कतिवर्णः यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः? गोयमा! अवण्णे, अगंधे, अरसे, गौतम! अवर्णः, अगन्धः, अरसः अफासे पण्णत्ते॥
अस्पर्शः प्रज्ञप्तः ।
१०८. भंते ! प्राणातिपात-विरमण यावत्
परिग्रह-विरमण, क्रोध-विवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक-ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं? गौतम! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसरहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं।
१०६. अह भंते ! उप्पत्तिया, वेणइया,
कम्मया, पारिणामिया-एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णत्ता ? गोयमा! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता॥
अथ भदन्त! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा, पारिणामिकी-एषा कतिवर्णा, यावत् कतिस्पर्शा प्रज्ञप्ता? गौतम! अवर्णा, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शा प्रज्ञप्ता।
१०६. भंते ! औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी
और पारिणामिकी-ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाली प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसरहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं।
११०. अह भंते! ओग्गहे, ईहा,
अवाए,धारणा-एस णं कतिवण्णा जाव कतिफासा पण्णता? गोयमा ! अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा पण्णत्ता ॥
अथ भदन्त! अवग्रहः, ईहा, अवायः, धारणा-एषा कतिवर्णा यावत् कतिस्पर्शा प्रज्ञप्ता? गौतम! अवर्णा, अगन्धा, अरसा, अस्पर्शा प्रज्ञप्ता।
११०. भंते ! अवग्रह, ईहा, अवाय और
धारणा-ये कितने वर्ण यावत कितने स्पर्श वाली प्रज्ञाप्त हैं? गौतम ! ये वर्ण-रहित, गंध-रहित, रसरहित और स्पर्श-रहित प्रज्ञप्त हैं।
१११. अह भंते ! उठाणे, कम्मे, बले,
वीरिए, पुरिसक्कार-परक्कमे-एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ?
अथ भदन्त! उत्थानं, कर्म, बलः, वीर्यः, पुरुषकार-पराक्रमः-एषः कतिवर्णः यावत् कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः?
१११. भंते ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और
पुरुषकार-पराक्रम-ये कितने वर्ण यावत् कितने स्पर्श वाले प्रज्ञप्त हैं ?
१. भ. वृ. १२/१०६-'लोभे ति सामान्य इच्छादयस्तविशेषाः तत्रेच्छा
अभिलाषमात्र.......मूर्छा-संरक्षणानुबंधः कांक्षा-अप्राप्ताशिंसा, 'हि' त्ति गृति-प्राप्तार्थेष्वासक्तिः, 'तण्हं ति तृष्णा प्राप्तानामव्ययेच्छा, 'भिज्ज' ति अभिव्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या विधानादिवदकारलोपाद्भिध्या, 'अभिज्झ' त्ति न भिध्या अभिध्या, भिध्यासदृशं भवान्तरं, तत्र दृढाभिनिवेशो भिध्या ध्यानलक्षणत्वात्तस्याः अदृढाभिनिवेशस्त्यभिध्या चित्तलक्षणत्यात्तस्याः, ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेषः-जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ति, आसासणय त्ति
आशंसनं-मम पुत्रस्य-शिष्यस्य वा इदमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः 'पत्थणय' ति प्रार्थन-परं प्रतीष्टार्थयाञ्चा, लालप्पणय ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः, कामास त्ति शब्दरूपप्राप्तिसंभावना, भोगासत्ति गंधादिप्राप्तिसंभावना, जीवितासत्ति जीवितव्यप्राप्तिसंभावना मरणासत्ति कस्याञ्चिदवस्थायां मरणप्राप्तिसंभावना, इदं च क्वचिन्न दृश्यते, नंदि रागे
त्ति समृद्धौ सत्यां रागो हषों-नंदिरागः। २. पण्हा. २/२ ३. सूयगडो १/१६/३-५, १/८/११॥
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