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पंचदसमं सतं : पन्द्रहवां शतक
मूल संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद गोसालग-पदं गोशालक-पदम्
गोशालक-पद १. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं । तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रावस्ती १. उस काल उस समय श्रावस्ती नाम की नगरी नगरी होत्था-वण्णओ। तीसे णं सा- नाम नगरी आसीत्-वर्णकः। तस्याः थी-वर्णक। उस श्रावस्ती नगरी के बाहर वत्थीए नगरीए बहिया उत्तर-पुरस्थिमे । श्रावस्त्याः नगर्याः बहिस्ताद् उत्तर- उत्तर-पूर्व दिशा में कोष्ठक नाम का चैत्य दिसीभाए, तत्थ णं कोट्ठए नाम चेइए पोरस्त्यः दिग्भागः, तत्र कोष्ठकः नाम था-वर्णक। उस श्रावस्ती नगरी में आजीवकहोत्था-वण्णओ। तत्थ णं सावत्थीए चैत्यम् आसीत्-वर्णकः । तत्र श्रावस्त्यां उपासिका हालाहला नाम की कुंभकारी रहती नगरीए हालाहला नाम कुंभकारी नगर्यां हालाहला नाम कुम्भकारी थी-आय यावत् बहुजन के द्वारा आजीविओवासिया परिवसति-अड्डा । आजीविकोपासिका परिवसति-आढ्या अपरिभवनीय। आजीवक-सिद्धान्त में यथार्थ जाव बहुजणस्स अपरिभूया, आजीविय- यावत् बहुजनस्य अपरिभूता, को सुनने वाली, ग्रहण करने वाली, समयंसि लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्ठा आजीविक-समये लब्धार्था गृहीतार्था (आजीवक सिद्धान्त के) प्रेमानुराग से विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता, पृष्टार्था विनिश्चितार्था अस्थिमज्जा- अनुरक्त अस्थि मज्जा वाली, 'आयुष्मन्! अयमाउसो! आजीवियसमये अटे, अयं प्रेमानुरागरक्ता, अयम् आयुष्मन् ! यह आजीवक-सिद्धांत यथार्थ है, यह परमार्थ परमद्वे, सेसे अणद्वेत्ति आजीवियसमएणं आजीविकसमयः अर्थः, अयं परमार्थः, है, शेष अनर्थ है। (ऐसा मानने वाली वह) अप्पाणं भावेमाणी विहरइ॥
शेषः अनर्थः इति आजीविकसमयेन इस प्रकार आजीवक-सिद्धान्त के द्वारा अपने आत्मानं भावयन्ती विहरति।
आपको भावित करते हुए रह रही थी।
२. तेणं कालेणं तेणं समएणं गोसाले तस्मिन् काले तस्मिन् समये गोशालः २. उस काल उस समय चौबीस वर्ष पर्याय मंखलिपुत्ते चउव्वीसवासपरियाए मंखलिपुत्रः चतुर्विशतिवर्षपर्यायः वाला मंखलिपुत्र गोशाल उस हालाहला हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भ- कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीवकआजीवियसंघसंपरिखुडे आजीवियसमएणं । कारापणे आजीविकसंघपरिवृतः समुदाय से संपरिवृत होकर आजीवकअप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ आत्मानं भावयन् विहरति।
सिद्धान्त के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए रह रहा था।
भाष्य
१. चौबीस वर्ष पर्याय वाला मंखलिपुत्र गोशाल
भगवती शतक १५, सूत्र ५५ के अनुसार भगवान् महावीर ने मंखलिपुत्र गोशाल को जब शिष्य के रूप में स्वीकार किया था, उस समय भगवान् महावीर की दीक्षा को लगभग दो वर्ष पूर्ण हो चुके
थे।' इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत प्रसंग के समय भगवान् महावीर के दीक्षा-पर्याय के छब्बीस वर्ष पूर्ण हो चुके थे तथा सत्ताइसवें वर्ष में शेष काल (चातुर्मास के अतिरिक्त काल) में श्रावस्ती में प्रवास के दौरान यह घटना घटी थी। (विस्तार के लिए इसी शतक के सूत्र १४१ का भाष्य द्रष्टव्य है।)
१. आचार्य महाप्रज्ञ, श्रमण महावीर, पृष्ठ ११४। प्रस्तुत शतक (सू. ५०-५५) से यह स्पष्ट है कि दूसरे वर्ष के चातुर्मास के अन्त में कोल्लाग सन्निवेश
से बाहर प्रणीत भूमि में गोशाल को शिष्य रूप में स्वीकृत किया था। २. श्रमण महावीर, पृष्ठ २८२।
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