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भगवई
श. १५ : सू. ३-७ ३. तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णदा कदायि इमे छ दिसाचरा अंतियं पाउन्भवित्था, तं जहा-साणे, कलंदे, कण्णियारे, अच्छिदे, अग्गिवेसायणे, अज्जुणे गोमायुपुत्ते॥
ततः तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य अन्यदा कदाचित् इमे षट् दिक्चराः अन्तिकं प्रादुरभूवन्, तद्यथा-सानः, कलन्दः, कर्णिकारः, अच्छिदः, अग्निवैश्यायनः, अर्जुनः गोमायुपुत्रः ।
३. एक समय मंखलिपुत्र गोशाल के पास ये छह दिशाचर' अकस्मात् आए, जैसे-शान, कलन्द, कर्णिकार, अच्छिद्र, अग्निवैश्यायन और अर्जुन गोमायुपुत्र।
भाष्य
सूत्र ३
भी संभवतः अर्जुन गोमायुपुत्र होना चाहिए अथवा दिशाचरों के १. दिशाचर
प्रसंग में 'अर्जुन गौतमपुत्र' होना चाहिए। कुछ प्रतियों में सूत्र ३ में देखें-इसी शतक के सूत्र ७७ का भाष्य।
'अर्जुन गौतमपुत्र' पाठ मिलता है।' २. अर्जुन गोमायुपुत्र
इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि छट्टे पोट्ट परिहार में यहां दिशाचरों में एक नाम है-अर्जुन गोमायुपुत्र। सूत्र १०१ उदायी ने अर्जुन नामक दिशाचर के शरीर में तथा उसकी मृत्यु होने में 'पोट्ट परिहार' के प्रसंग में गोशाल ने अपना छट्ठा 'पोट्ट परिहार' पर मंखलिपुत्र गोशाल के शरीर में प्रवेश किया था। 'अर्जुनक गौतमपुत्र' बताया है। यदि ये दो नाम एक हैं, तो यहां पर इस संदर्भ में इसी शतक के सूत्र ७७,१०१,१०२ द्रष्टव्य हैं। ४. तए णं ते छ दिसाचरा अट्टविहं पुव्वगयं ततः ते षट् दिकचराः अष्टविधं पूर्वगतं ४. इन छह दिशाचरों ने अष्टविध महानिमित्त मग्गदसम 'सएहि-सएहि मतिदसणेहिं मार्गदशमं स्वकैः-स्वकैः मतिदर्शनैः का पूर्वगत के दसवें अंग से अपने-अपने निज्जूहंति, निज्जूहित्ता गोसालं नियूंथन्ति नि!थयित्वा गोशालं मतिदर्शन से निर्वृहण किया। नि!हण कर मंखलिपुत्तं उवट्ठाइंसु॥
मंखलिपुत्रम् उपास्थुः (उवट्ठाइंसु) मंखलिपुत्र गोशाल के सामने उपस्थित किया।
भाष्य सूत्र ४ १. महानिमित्त
देखें-इसी शतक के सूत्र ७७ का भाष्य। ५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तेन ५. उस अष्टांग महानिमित्त के किसी सामान्य
अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ अष्टांगस्य महानिमित्तस्य केनचित् अध्ययन मात्र से सब प्राणी, सब भूत, सब उल्लोयमेत्तेणं सब्वेसिं पाणाणं, सव्वेसि उल्लोकमात्रेण सर्वेषां प्राणानाम्, सर्वेषां जीव और सब सत्वों के लिए इन छह भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि भूतानाम्, सर्वेषां जीवानाम्, सर्वेषां अनतिक्रमणीय व्याकरणों का व्याकरण सत्ताणं इमाई छ अणइक्कमणिज्जाई वा- सत्वानाम् इमानि षट् अनतिक्रमणीयानि किया, जैसे-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, गरणाई वागति, तं जहा-लाभं अलाभं व्याकरणानि व्याकरोति, तद्यथा-लाभम्, जीवित तथा मरण।
सुहं दुक्खं जीवियं मरणं तहा। अलाभ, सुखं, दुःखं, जीवितं मरणं तथा।। ६. तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते तेणं __ ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः तेन ६. वह मंखलिपुत्र गोशाल महानिमित्त के
अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणई अष्टांगस्य महानिमित्तस्य केनचित् किसी सामान्य अध्ययन मात्र से श्रावस्ती उल्लोयमेत्तेण सावत्थीए नगरीए अजिणे उल्लोकमात्रेण श्रावस्त्यां नगर्याम् नगरी में अजिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् जिणप्पलावी, अणरहा अरहप्पलावी, अजिनः जिनप्रलापी, अनर्हत् न होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली न होकर अकेवली केवलिपलावी, असञ्चण्णू ___ अर्हत्प्रलापी, अकेवली केवलिप्रलापी, केवली-प्रलापी, सर्वज्ञ न होकर सर्वज्ञसवण्णुप्पलावी, अजिणे जिणसई __असर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी, अजिनः प्रलापी, जिन न होकर जिन शब्द से पगासेमाणे विहरह॥ जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति।
प्रकाशित करता हुआ विहरण करने लगा। ७. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग- ततः श्रावस्त्यां नगर्या शृंगाटक-त्रिक- ७. उस श्रावस्ती नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, तिग-चउक्क-चचर-चउम्मुह-महापह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चोराहों, चोहटों, चार द्वार वाले स्थानों, पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति, एवं जनमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, भाषते, एवं प्ररूपयति-एवं खलु प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं एवं परूबेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! गोस- देवानुप्रियाः! गोशालः मंखलिपुत्रः प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र
ले मंखलिपुत्ते जिणे जिणपलावी, जिनः जिनप्रलापी, अर्हत् गोशालक जिन होकर जिन-प्रलापी, अर्हत् १. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, १५/३ का पाठान्तर-'गोयमपुत्ते।
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