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________________ भगवई २४७ श. १५ : सू. ८-११ अरहा अरहप्पलावी, केवली केबलि-प्प- अर्हत्प्रलापी, केवली केवलिप्रलापी, लावी, सन्दण्णू सव्वण्णुप्पलावी, जिणे सर्वज्ञः सर्वज्ञप्रलापी जिनः जिनशब्दं जिणसई पगासेमाणे विहरइ। से कहमेयं प्रकाशयन् विहरति। तत् कथमेतत् मन्ने एवं? मन्ये एवम्? होकर अर्हत्-प्रलापी, केवली होकर केवली. प्रलापी, सर्वज्ञ होकर सर्वज्ञ-प्रलापी, जिन होकर अपने आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। तो क्या यह ऐसा ही है? .. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया॥ तस्मिन काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् प्रतिगता। ८. उस काल उस समय स्वामी समवसृत हुए यावत् परिषद् वापस नगर में चली गई। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इंदभूती नाम अणगारे गोयमे गोत्तेणं इन्द्रभूतिः नाम अनगारः गौतमः सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए । सगोत्रेण सप्तोत्सेधः समचतुरसबजरिसभनारायसंघयणे कणग- संस्थानसंस्थितः वजर्षभनाराचसंहननः पुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे कनकपुलकनिकष-पक्ष्मगौरः उग्रतपाः तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे । दीप्ततपाः, तप्ततपाः महातपाः, 'ओघोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे । राले' घोरः घोरगुणः घोरतपस्वी संखित्तविउलतेयलेल्से छटुंछटेणं घोरब्रह्मचर्यवासी उत्क्षिप्तशरीरः अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं । संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः षष्ठषष्ठेन तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥ अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति। ६. उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी गौतम सगोत्र सात हाथ की ऊंचाई वाले, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित, वजऋषभनाराच संहननयुक्त, कसौटी पर खचित स्वर्णरखा तथा पद्मकेसर की भांति पीताभ गौर वर्ण वाले, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान, घोर, घोर गुणों से युक्त, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, लघिमा ऋद्धि सम्पन्न, विपुल तेजोलश्या को अन्तर्लीन रखने वाले, बिना विराम षष्ठभक्त तपःकर्म तथा संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रह रहे हैं। १०. तए णं भगवं गोयमे छट्ठक्ख- ततः सः भगवान् गौतमः षष्ठक्षपण- १०. भगवान् गौतम षष्ठ भक्त के पारणा में मणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं पारणके प्रथमायां पौरुष्यां स्वाध्यायं प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, द्वितीय करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, करोति, द्वितीयायां पौरुष्यां ध्यानं प्रहर में ध्यान करते हैं, तृतीय प्रहर में त्वरता, तइयाए पोरिसीए अतुरिय- ध्यायति, तृतीयायां पौरुष्याम् अत्वरित- चपलता और संभ्रम रहित होकर मुखवस्त्रिका मचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, मचपलमसंभ्रान्तः मुखपोतिका प्रति- का प्रतिलेखन करते हैं, प्रतिलेखन कर पात्रपडिलेहेत्ता भायणवत्थाई पडिलेहेइ, लिखति, प्रतिलिख्य भाजनवस्त्राणि वस्त्र का प्रतिलेखन करते हैं प्रतिलेखन कर पडिलेहेत्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता प्रतिलिखति, प्रतिलिख्य भाजनानि पात्रों का प्रमार्जन करते हैं, प्रमार्जन कर भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव प्रमार्जयति, प्रमाय॑ भाजनानि पात्रों को हाथ में लेते हैं, लेकर जहां श्रमण समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उद्गृह्णाति, उद्गृह्य यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं आकर उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं बंदइ भगवान महावीरः तत्रैव उपागच्छति, श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते करते हैं, वंदन-नमस्कार कर वे इस प्रकार वयासी-इच्छामि णं भंते! तुम्भेहिं नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा बोले-भंते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर षष्ठ अब्भणुण्णाए समाणे छहक्खमण- एवमवादीत्-इच्छामि भदन्त ! युष्माभिः भक्त के पारणा में श्रावस्ती नगर के उच, पारणगंसि सावत्थीए नगरीए उच्च- अनुज्ञातः सन् षष्ठक्षपणपारणके नीच और मध्यम कुलों की सामुदायिक भिक्षा -नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स श्रावस्त्यां नगरर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि चर्या के लिए घूमना चाहता हूं। भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय अटितुम्।। देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत देवाणुप्पिया! मा पडिबंध। यथासुखं देवानुप्रिय! मा प्रतिबंधम्। करो। ११. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया ततः भगवान् गौतम ! श्रमणेन भगवता महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे महावीरेण अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य समणस्स . भगवओ महावीरस्स भगवतः महावीरस्य अंतिकात् अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, ११. भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण भगवान् महावीर के पास से कोष्ठक चैत्य से बाहर आते हैं, बाहर आकर त्वरता, चपलता और संभ्रम-रहित For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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