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________________ भगवई श. १५ : सू. १२,१३ २४८ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता प्रतिनिष्क्रम्य अत्वरितमचपलमअतुरियमचवलमसंभंते जुगतर- संभ्रांतः युगान्तरप्रलोकनया दृष्ट्या पलोयणाए दिट्ठीए पुरओरियं सोहेमाणे- पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् यत्रैव सोहेमाणे जेणेव सावत्थी नगरी तेणेव श्रावस्ती नगरी तत्रैव उपागच्छति, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सावत्थीए। उपागम्य श्रावस्त्यां नगर्याम् उच्च-नीचनगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई मध्यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडइ॥ भिक्षाचर्याम् अटति। होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन करते हुए जहां श्रावस्ती नगर है, वहां आते हैं, आकर श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हैं। १२. तए णं भगवं गोयमे सावत्थीए ततः भगवान् गौतमः श्रावस्त्यां नगर्याम् नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि गुह- घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अड- समुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् बहुजन- माणे बहुजणसद्द निसामेइ, बहुजणो अण्ण- शब्दं निशमयति, बहुजनाः अन्योन्यं मण्णस्स एवमाइक्खड़ एवं भासइ एवं एवमाख्याति, एवं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणु- एवं प्ररूपयति-एवं खलु देवानुप्रिय! प्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिण- गोशालः मंखलिपुत्रम्-जिनः जिनपलावी जाव जिणे जिणसदं पगासेमाणे प्रलापी यावत् जिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरइ। से कहमेयं मन्ने एवं? विहरति। तत् कथमेतत् मन्ये एवम्? १२. भगवान् गौतम श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों की सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनते हैं, अनेक व्यक्ति परस्पर इस प्रकार का आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन-प्रलापी यावत् जिन होकर अपने आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। तो क्या यह ऐसा ही है? १३. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स ततः भगवान् गौतमः बहुजनस्य १३. अनेक व्यक्तियों के पास इस अर्थ को अंतियं एयमहँ सोचा निसम्म जायसढे अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य सुनकर अवधारण कर भगवान् गौतम के मन जाव समुप्पन्नकोउहल्ले अहापज्जतं जातश्रद्धः यावत् समुत्पन्नकुतूहलः में एक श्रद्धा यावत् कुतूहल उत्पन्न हुआ। वे समुदाणं गेण्हइ, गेण्हित्ता सावत्थीओ यथा-पर्याप्तं समुदानं गृह्णाति, यथापर्याप्त भिक्षा लेते हैं, लेकर श्रावस्ती नगर नगरीओ पडिनिक्खमइ, अतुरियम- गृहीत्वा श्रावस्त्याः नगर्याः से बाहर आते हैं, त्वरा-चपलता-और संभ्रमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए प्रतिनिष्क्रामति, अत्वरितमचपलम- . रहित होकर युग-प्रमाण भूमि को देखने वाली परओ रियं सोहेमाणे-सोहेमाणे जेणेव संभ्रान्तः युगान्तर-प्रलोकनया दृष्ट्या दृष्टि से ईर्या का शोधन करते हुए, शोधन कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे पुरतः ईयाँ शोधयन्-शोधयन् यत्रैव करते हुए जहां कोष्ठक चैत्य है, जहां श्रमण तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स कोष्ठकं चैत्यं, यत्रैव श्रमणः भगवान् भगवान् महावीर हैं, वहा आते हैं, आकर भगवओ महावीरस्म अदूरसामंते गमणा- महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न गमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता। श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अतिनिकट रहकर गमनागमन का प्रतिक्रमण एसणमणेसणं आलोएइ, आलोएत्ता अदूरसामन्ते गमनागमने प्रतिक्रामति, करते हैं, प्रतिक्रमण कर एषणा और अनैषणा भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणं प्रतिक्रम्य, एषणाम् अनेषणाम् की आलोचना करते हैं, आलोचना कर भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता आलोचयति आलोच्य भक्तपानं भक्तपान दिखलाते हैं, दिखलाकर श्रमण नमंसित्ता णच्चासन्ने णातिदूरे सुस्सूसमाणे प्रतिदर्शयति, प्रतिदर्थ्य श्रमणं भगवन्तं भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार करते हैं, नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! मैं पज्जुवासमाणे एवं वयासी-एवं खलु अहं नमस्यित्वा, नत्या-सन्नः नातिदूरः षष्ठ भक्त के पारणे में आपकी अनुज्ञा पाकर भंते! छट्टक्ख-मणपारणगंसि तुब्भेहिं शुश्रूषमाणः नमस्यन् अभिमुखः विनयेन श्रावस्ती नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों अन्भणुण्णाए समाणे सावत्थीए नगरीए प्राञ्जलिपुटः पर्युपासीनः एवमवादीत- में सामुदायिक भिक्षा के लिए घूमते हुए उच्च-नीय-मज्झिमाणि कुलाणि एवं खलु अहं भदन्त! षष्ठक्षपण- अनेक व्यक्तियों के ये शब्द सुनता हूं, अनेक घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे पारणके युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् व्यक्ति परस्पर इस प्रकार का आख्यान, बहुजणसदं निसामेमि, बहुजणो श्रावस्त्यां नगर्याम् उच्च-नीच-मध्यमानि भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैंअण्णमण्णस्स एवमाइक्वइ एवं भासइ कुलानि गृह-समुदानस्य भिक्षाचर्यायै । देवानुप्रिय! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु अटन् बहुजन-शब्दं निशमयामि, जिन-प्रलापी यावत् जिन होकर अपने देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति, एवं आपको जिन शब्द से प्रकाशित करता जिणप्पलावी जाव जिणे जिणसई ___भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं प्ररूपयति- हआ विहार कर रहा है। भंते! क्या यह ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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