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________________ १७३ श. १३ : उ. ६ : सू. १५८-१६४ भगवई १५८. से जहानामए समुद्दवायसए सिया, वीईओ वीइं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, तहेव॥ अथ यथानामकः समुद्रवायसकः स्यात्, १५८, जैसे कोई समुद्रकाक होता है, वह एक वीचेः वीचिं 'डेवेमाणे-डेवेमाणे' गच्छेत्, तरंग से दूसरी तरंग पर कूदता हुआ, कूदता एवमेव अनगारः, तथैव। हुआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी, तथावत्। १५६. से जहानामए केइ पुरिसे चक्कं अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः चक्रं गहाय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि गृहीत्वा गच्छेत्, एवमेव अनगारः अपि भाविअप्पा चक्कहत्यकिञ्चगएणं भावितात्मा चक्रहस्तकृत्यगतेन अप्पाणेणं, सेसं जहा केयाघडियाए। एवं । आत्मना, शेषं यथा 'केयाघडियाए'। छत्तं, एवं चम्म॥ एवं छत्रम्, एवं चर्म। १५६. जैसे कोई पुरुष चक्र को ग्रहण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार स्वयं चक्र हाथ में ले, कृत्यागत होकर चलता है। शेष रज्जु से बंधी घटिका की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार छत्र, इसी प्रकार चर्म की वक्तव्यता। १६०. से जहानामए केइ पुरिसे रयणं अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः रत्नं गहाय गच्छेज्जा, एवं चेव। एवं वइरं, गृहीत्वा गच्छेत्, एवं चैव। वेरुलियं जाव रिटं। एवं उप्पलहत्थगं, एवं वजं, वैडूर्यं यावत् रिष्टम्। एवम् एवं पउमहत्थगं, कुमुदहत्थगं, नलिण- उत्पलहस्तकं, एवं पद्महस्तकं, एवं हत्थग, सुभगहत्थगं, सुगंधियहत्थग, कुमुदहस्तकं, नलिनहस्तकं, सुभगपोंडरीयहत्थगं, महापोंडरीयहत्थगं, हस्तकं, सुगन्धिकहस्तकं, पुण्डरीकसयपत्तहत्थगं, से जहानामए केइ पुरिसे हस्तकं, महापुण्डरीकहस्तकं, शतसहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा, एवं पत्रहस्तकम्। अथ यथानामकः कश्चित् चेव॥ पुरुषः सहस्रपत्रकं गृहीत्वा गच्छेत्, एवं चैव। १६०. जैसे कोई पुरुष रत्न को ग्रहण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। इसी प्रकार वज, वैडूर्य यावत् अरिष्टा इसी प्रकार उत्पल-हस्तक, इसी प्रकार पद्म हस्तक, कुमुद-हस्तक, नलिन-हस्तक, सुभग-हस्तक, सौगंधिक-हस्तक, पौण्डरिक-हस्तक, महापोण्डरिक-हस्तक, शतपत्र-हस्तक। जैसे कोई पुरुष सहस्रपत्रक ग्रहण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। १६१. से जहानामए केइ पुरिसे भिसं अवदालिय-अवदालिय गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि भिसकिच्चगएणं अप्पाणेणं, तं चेव।। अथ यथानामकः कश्चित् पुरुषः विसम् अवदलय्य-अवदलय्य गच्छेत्, एवमेव अनगारः अपि विसकृत्यगतेन आत्मना, तत् चैव। १६१. जैसे कोई पुरुष नाल-तंतु को विदीर्ण कर, विदीर्ण कर चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं नालतंतु कृत्यागत होकर चलता है। पूर्ववत्। १६२. से जहानामए मुणालिया सिया, अथ यथानामिका मृणालिका स्यात्, १६२. जैसे कोई कमलिनी होती है वह पानी में उदगंसि कायं उम्मज्जिया-उम्मज्जिया उदके कायम् उन्मज्ज्य-उन्मज्ज्य उन्मज्जन कर (डुबकी लगा कर) उन्मज्जन चिट्ठज्जा, एवामेव, सेसं जहा तिष्ठेत्, एवमेव, शेषं यथा वल्गुल्याः । कर ठहरती है, इसी प्रकार भावितात्मा वग्गुलीए॥ अनगार भी। शेष वल्गुलिका की भांति वक्तव्यता १६३. से जहानामए वणसंडे सिया-किण्हे अथ यथानामक: वनषण्ड: स्यात्- किण्होभासे जाव महामेहनिकरंबभूए, कृष्णः कृष्णावभासः यावत् पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे महामेघनिकुरम्बभूतः प्रासादीयः पडिरूवे, एवामेव अणगारे वि दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः, एवमेव भाविअप्पा वणसंडकिच्चगएणं अप्पाणेणं अनगारः अपि भावितात्मा उखु वेहासं उप्पएज्जा! वनषण्डकृत्यगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पते? सेसं तं चेव॥ शेषं तत् चैव। १६३. जैसे कोई वनषंड होता है-कृष्ण, कृष्ण अवभास वाला यावत् काली कजरारी घटा के समान चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्वयं वनपंड कृत्यागत होकर ऊपर आकाश में उड़ता शेष पूर्ववत्। १६४. से जहानामए पुक्खरणी सिया- सा यथानामिका पुष्करिणी स्यात्- १६४. जैसे कोई पुष्करिणी होती है-चतुष्कोण For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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