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________________ १७२ भगवई श. १३ : उ. ६ : सू. १५२-१५७ सेसं तं चेव। एवं सुवण्णपेलं, एवं स्यणपेलं, वइरपेलं, वत्थपेलं, आभरणपेलं, एवं वियलकडं, सुंबकडं, चम्मकडं, कंबलकडं, एवं अयभारं, तंबभारं, तउयभारं, सीसगभारं, हिरण्णभारं, सुवण्णभारं, वइरभारं॥ शेषं तत् चैव। एवं सुवर्णपेटाम्, एवं रत्नपेटां, वज्रपेटां, वस्त्रपेटाम्, आभरणपेटाम् एवं विदलकटं, शुम्बकटं, चर्मकटं, कम्बलकटम्, एवं अयोभारं, ताम्रभारं, त्रपुकभारं, सीसकभारं, हिरण्यभारं, सुवर्णभारं, वज्रभारम्। शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार स्वर्णपेटी, इसी प्रकार रत्नपेटी, वज्रपेटी, वस्त्रपेटी, आभरणपेटी, इसी प्रकार बांस की खपाचियों से बनी हुई चटाई अथवा टाटी, खस से बनी हुई टाटी, चमड़े से गुंथी हुई खाट, ऊनी कंबल, इसी प्रकार लोहभार, ताम्रभार, पीतलभार, शीशकभार, हिरण्यभार, स्वर्णभार, वज्रभार। १५२. से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि अथ यथानामिका वल्गुलिः स्यात्, द्वौ पाए उल्लंबिया-उल्लंबिया उखुपादा अपि पादौ उल्लम्ब्य-उल्लम्ब्य अहोसिरा चिद्वेज्जा, एवामेव अणगारे ऊर्ध्वपादा अधःशिरा तिष्ठेत्, एवमेव वि भाविअप्पा वग्गुलीकिच्चगएणं अनगारोऽपि भावितात्मा वल्गुलिअप्पाणेणं उडं वेहासं उप्पएज्जा ? कृत्यगतेन आत्मना ऊर्ध्वं विहायसम् उत्पतेत्? एवं जण्णोवइयवत्तब्वया भाणियव्वा एवं यज्ञोपवीत-वक्तव्यता भणितव्या जाव विउविस्सति वा॥ यावत् विकरिष्यति वा। १५२. जैसे कोई वल्गुलिका (चमगादड़) होती है, वह दोनों पैरों को लटका कर ऊर्ध्व पैर और अधःशिर स्थित होती है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी स्त्यं वल्गुलिका कृत्यागत होकर ऊपर आव..श में उड़ता है? इस प्रकार यज्ञोपवीत (भगवई ३/२०३) की वक्तव्यता कथनीय है यावत् विक्रिया करेगा। १५३. से जहानामए जलोया सिया, अथ यथानामिका जलौका स्यात्, १५३. जैसे कोई जोंक होती है, वह पानी में उदगंसि कार्य उबिहिया-उबिहिया उदके कायम् उद्विध्य-उद्विध्य गच्छेत्, शरीर को उछाल उछाल कर चलती है, इसी गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं जहा एवमेव अनगारः, शेषं यथा वल्गुल्याः। प्रकार अनगार भी। शेष वल्गुलिका की वग्गुलीए॥ भांति वक्तव्यता। न. १५४. से जहानामए बीयंबीयगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणे- समतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव॥ अथ यथानामक: बीजंबीजकशकुनः १५४. जैसे कोई बबीला पक्षी होता है, वह दोनों स्यात्, द्वौ अपि पादौ समतुरङ्गायन्- पैरों को एक साथ तुल्य रेखा में उठाता समतुरङ्गायन् गच्छेत्, एवमेव अनगारः, हुआ, उठाता हुआ चलता है, इसी प्रकार शेषं तत् चैव। भावितात्मा अनगार भी, शेष पूर्ववत्। १५५. से जहानामए पक्खिविरालए सिया, रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे-डेवेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं अथ यथानामकः पक्षिविडालकः स्यात्, १५५. जैसे कोई विराल पक्षी (बड़ी चमगादड़) रुक्षात् रुक्षं 'डेवेमाणे-डेवेमाणे' होता है, वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर गच्छेत्, एवमेव अनगारः, शेषं तत् चैव। कूदता हुआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। शेष पूर्ववत्। चेव॥ १५६. से जहानामए जीवंजीवगसउणे सिया, दो वि पाए समतुरंगेमाणेसमतुरंगेमाणे गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे, सेसं तं चेव॥ अथ यथानामक: जीवंजीवकशकुनः स्यात्, द्वौ अपि पादौ समतुरङ्गायन्समतुरङ्गायन् गच्छेत् , एवमेव अनगारः, शेषं तत् चैव। १५६. जैसे कोई चकोर पक्षी होता है, वह दोनों पैरों को एक साथ तुल्य रेखा में उठाता हुआ, उठाता हुआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार भी। शेष पूर्ववत्। १५७. से जहानामए हंसे सिया, तीराओ अथ यथानामक: हंसः स्यात्, तीरात् तीरं अभिरममाणे-अभिरममाणे तीरम् अभिरममाणः-अभिरममाणः गच्छेज्जा, एवामेव अणगारे वि गच्छेत, एवमेव अनगारः अपि भाविअप्पा हंसकिचगएणं अप्पाणेणं. भावितात्मा हंसकृत्यगतेन आत्मना, सेसं तं चेव॥ शेषं तत् चैव। १५७. जैसे कोई हंस होता है, वह एक तट से दूसरे तट पर क्रीड़ा करता हुआ, क्रीड़ा करता हआ चलता है, इसी प्रकार भावितात्मा अनगार स्वयं हंसकृत्यागत होकर क्रीड़ा करता है, पूर्ववत्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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