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श. १५ : सू. ८२-८६
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नाम थेरे पगइभदए जाव विणीए । आनन्दः नाम स्थविरः प्रकृतिभद्रक: छटुंछट्टेणं अणिक्वित्तेणं तवोकम्मेणं यावत् विनीतः षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे तपःकर्मणा संयमेन तपसा आत्मानं विहरइ॥
भावयन् विहरति।
भगवई स्थविर प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। वह निरंतर बेले-बेले तपःकर्म के द्वारा संयम और तपस्या से अपने आपको भावित करता हुआ विहार कर रहा है।
८२. तए णं से आणंदे थेरे छट्ठक्ख- ततः सः आनन्दः स्थविरः षष्ठक्षपण- मणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा पारणके प्रथमायां पौरुष्याम् एवं यथा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, तहेब जाव गौतमस्वामी तथैव आपृच्छति, तथैव उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमु- यावत् उच्च-नीच-मध्यमानि कुलानि दाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्यायाम् अटन् हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारा- अदूरसामंते वीइवयइ॥
पणस्य अदूरसामन्ते व्यतिव्रजति।
८२. आनंद स्थविर ने बेले के पारण में प्रथम गोरिसी में इस प्रकार जैसे गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से पूछा, वैसे ही यावत् उच्च, नीच तथा मध्यम कुलों सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए घूमता हुआ हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न अति दूर और न अति निकट जा रहा था।
८१.तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आणंदं थेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकरावणस्स अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासइ, पासित्ता एवं क्यासी-एहि ताव आणंदा! इओ एगं महं उवमियं निसामेहि।
ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आनन्दं ___ ८३. मंखलिपुत्र गोशाल ने आनंद स्थविर को स्थविरं हालाहलायाः कुम्भकार्याः हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण से न कुम्भकारापणस्य अदूरसामन्तात् अति दूर और न अति निकट जाते हुए देखा, व्यतिव्रजन्तं पश्यति, दृष्ट्वा देखकर इस प्रकार कहा-आनंद! तुम इधर एवमवादीत्-एहि तावत् आनन्द! इतः आओ, एक बड़ी उपमा को सुनो। एकं महान्तम् उपमितं निशाम्य।
८४. तए णं से आणंदे थेरे गोसालेणं ततः सः आनन्दः स्थविरः गोशालेन ४. स्थविर आनन्द मंखलिपुत्र गोशाल के इस मंखलिपुत्तेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव मंखलिपुत्रेणं एवम् उक्ते सति यत्रैव प्रकार कहने पर जहां हालाहला कुंभकारी के हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे, हालाहलायाःकुम्भकार्याः कुम्भकारापणः । कुंभकारापण था, जहां मंखलिपुत्र गोशाल जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव यत्रैव गोशालः मंखलिपुत्रः तत्रैव था, वहां आया। उवागच्छइ॥
उपागच्छति।
६५. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः आनन्द- ८५. मंखलिपुत्र गोशाल ने आनन्द स्थविर से आणंदं थेरं एवं बयासी- एवं खलु स्थविरम् एवमवादीत्-एवं खलु आनन्द! इस प्रकार कहा-आनन्द! चिर अतीत काल आणंदा! इत्तो चिरातीयाए अद्धाए केइ इतः चिरातीते अध्वनि केचिद उच्चावचाः में कुछ उच्च तथा निम्न, धनार्थी, अर्थ-लुब्ध, उच्चावया वणिया अत्थत्थी अत्थलुद्धा वणिजः अर्थिनः अर्थलुब्धाः अर्थ- अर्थ-गवेषी, अर्थ-कांक्षी, अर्थ-पिपासु वणिक अत्थगवेसी अत्थकंखिया अत्यपिवासा गवेषिणः अर्थकांक्षिताः अर्थपिपासाः अर्थ की गवेषणा के लिए नाना प्रकार के अत्थ-गवेसणयाए नाणाविहविउलपणिय- __ अर्थगवेषणायै नानाविधविपुलपण्य- विपुल पण्य' के भांड लेकर गाड़ी-गाड़ों में भंडमायाए सगडीसागडेणं सुबह भत्त- भाण्डम् आदाय शकटीशाकटेन सुबहु बहुत पथ्य भक्तपान लेकर एक विशाल पाणं पत्थयणं गहाय एगं महं अगामियं भक्तपानं पथ्यदनं गृहीत्वा एकां महतीं बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमन-रहित अणोहियं छिन्नावायं दीहमद्धं अडविं अग्रामिकाम् अनौधिकां छिन्नापातां प्रलंब मार्ग वाली अटवी में अनुप्रविष्ट हो गए। अणुप्पविट्ठा॥
दीर्घध्वानम् अटवीम् अनुप्रविष्टाः ।
भाष्य १.पण्य
सू. ५६ का भाष्य द्रष्टव्य है। २६. तए णं तेसिं वणियाणं तीसे ततः तेषां वणिजां तस्याम् अग्रामि-८६. उन वणिकों के उस विशाल बस्ती-शून्य, अगामियाए अणोहियाए छिन्नावायाए कायाम् अनौधिकायां छिन्नापातायां जल-रहित, आवागमन-रहित प्रलंबदीहमद्धाए अडवीए किंचि देसं दीर्घाध्वनि अटव्यां किञ्चित् देशम् मार्गवाली अटवी में कुछ दूर जाने पर पहले अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुबगहिए उदए अनुप्राप्तानां सतां तद् पूर्वगृहीतम् लिया हुआ जो जल था, वह बार-बार पीते
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