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________________ भगवई २८१ अणुपुल्वेणं परिभुज्जमाणे-परिभुज्जमाणे उदकम् अनुपूर्वेण परिभुञ्जमानं- झीणे॥ परिभुञ्जमानं क्षीणम्। श. १५ : सू. ८७,८८ पीते समाप्त हो गया। ८७. तए णं ते वणिया झीणोदगा समाणा ततः ते वणिजः क्षीणोदकाः सन्तः ८७. जल के समाप्त होने पर, प्यास के प्रारम्भ तण्हाए परब्भमाणा अण्णमण्णे सद्दावेंति, तृष्णया प्रारभमाणाः अन्योन्यान् होने पर वणिकों ने एक-दूसरे को बुलाया, सदावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादीत्- बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! हम इस देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे अगामियाए । एवं खलु देवानुप्रियाः! अस्माकम् विशाल बस्ती-शून्य, जल-रहित, आवागमनअणोहियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अस्याम् अग्रामिकायाम् अनौधिकायाम् रहित प्रलंब मार्ग वाली अटवी में हैं। कुछ दूर अडवीए किंचि देसं अणुपत्ताणं छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्यां जाने पर पहले लिया हुआ जो जल था, वह समाणाणं से पुल्वगहिए उदए अणुपुल्वेणं किञ्चित् देशम् अनुप्राप्तानां सतां तद् बार-बार पीते पीते समाप्त हो गया। परिभुज्जमाणे-परिभुज्जमाणे झीणे, तं पूर्वगृहीतम् उदकम् अनुपूर्वेण देवानुप्रियो! हमारे लिए यह श्रेय है कि हम सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमीसे परिभुञ्जमानं-परिभुञ्जमानं क्षीणम् इस विशाल बस्ती-शून्य यावत् अटवी में चारों अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स तत् श्रेयः खलु देवानुप्रियाः! अस्माकम् ओर जल की मार्गणा-गवेषणा करें। इस सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेत्तए । अस्याम् अग्रामिकायां यावत् अटव्याम् प्रकार एक दूसरों के पास इस अर्थ को त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए एयम8 उदकस्य सर्वतः समन्तात् मार्गण- स्वीकार किया, स्वीकार कर उस विशाल पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तीसे णं गवेषणां कर्तुम् इति कृत्वा अन्योन्यस्य बस्ती शून्य यावत् अटवी में चारों ओर जल अगामियाए जाव अडवीए उदगस्स अन्तिके एतमर्थं प्रतिशृण्वन्ति, की मार्गणा-गवेषणा करते हुए एक विशाल सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेंति, प्रतिश्रुत्य तस्याम् अग्रामिकायां यावत् वनषंड को प्राप्त किया-कृष्ण, कृष्ण अवभास उदगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं अटव्याम् उदकस्य सर्वतः समन्तात् वाला, यावत् काली कजरारी घटा से समान करेमाणा एगं महं वणसंडं मार्गण-गवेषणां कुर्वन्ति, उदकस्य चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, आसादेंति-किण्हं किण्होभासं जाव सर्वतः समन्तात् मार्गण-गवेषणां कमनीय और रमणीय। महामेहनिकुरंबभूयं पासादीयं दरिस- कुर्वन्तः एवं महान्तं वनषण्डम् णिज्जं अभिरूवं पडिरूवं। आसादयन्ति-कृष्णं कृष्णभा (किण्होभासं) यावत् महत् मेघनिकुरम्बभूतं प्रासादिकं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपं। तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए, तस्य वनषण्डस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र उस वनषंड के बहु मध्य देश भाग में एक बड़ा एत्थ णं महेग वम्मीयं आसादेति। तस्स महान्तम् एकं वल्मीकम् आसादयन्ति। वल्मीक (बांबी) मिला। उस वल्मीक (बांबी) णं वम्मीयस्स चत्तारि वापूओ तस्य वल्मीकस्य वपूंसि चत्वारि के चार ऊंचे और जटा-शटा वाले शिखर थे; अब्भुग्गयाओ, अभिनिसढाओ, तिरियं अभ्युद्गतानि अभिनिस्सटानि वे मध्य भाग में स्वल्प विस्तार वाले थे, निम्न सुसंपम्गहियाओ, अहे पन्नगद्धरूवाओ, (अभिनिसढाओ), तिर्यक् सुसम्प्रगृही- भाग में वे सर्प के अर्द्ध रूप वाले, अर्द्ध पन्नगद्धसंठाणसंठियाओ, पासादियाओ तानि, अधःपन्नगार्द्धसंस्थान- सर्पाकार संस्थान से संस्थित, चित्त को प्रसन्न दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ संस्थितानि, प्रासादिकानि दर्शनीयानि करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय पडिरूवाओ॥ अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि। ८८. तए णं ते वणिया हद्वतुहा अण्णमण्णं ततः ते वणिजः हृष्ट-तुष्टाः अन्योन्यं ५५. वणिकों ने हृष्ट-तुष्ट होकर एक दूसरे को सदावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादिषुः- बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहादेवाणुप्पिया! अम्हे इमीसे अगामियाए एवं खलु देवानुप्रियाः! अस्माभिः देवानुप्रियो! हमने इस विशाल बस्ती-शून्य, अणोहियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए अस्याम् अग्रामिकायाम् अनौधिकायां जल-रहित, आवागभन-रहित प्रलंब मार्ग अडवीए उदगस्स सब्बओ समंता मग्गण- छिन्नापातायां दीर्घाध्वनि अटव्याम् वाली अटवी में जल के चारों ओर मार्गणागवेसणं करेमाणेहिं इमे वणसंडे उदकस्य सर्वतः समन्तात् मार्गण- गवेषणा करते हुए इस वनषंड को प्राप्त आसादिए-किण्हे किण्होभासे। इमस्स गवषणां कुर्वद्भिः अयं वनषण्डः किया-कृष्ण, कृष्ण अवभास वाला। इस णं वणसंडस्स बहमज्झदेसभाए इमे आसादितः-कृष्णः कृष्णभाः (किण्हो- वनषंड के बहुमध्यदेश भाग में इस वल्मीक वम्मीए आसादिए। इमस्स णं वम्मीयस्स भासे) अस्य वनषण्डस्य बहुमध्य- को प्राप्त किया। इस वल्मीक के चार ऊंचे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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