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________________ भगवई ७८. तए णं सा महतिमहालया महच्चपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म हहतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, दत्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया ॥ गोसालस्स अमरिस- पदं ७६. तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क चच्चर- चउम्मुह- महापहपसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइ - क्खइ जाव परूवेइ-जण्णं देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणे जिणस पगासेमाणे विहरइ तं मिच्छा । समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खड़ जाव परूवेइ-एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नामं मंखे पिता होत्था । तए णं तस्स मंखस्स एवं चैव तं सव्वं भाणियव्वं जाव अजिणे जिणसद्दं पगासेमाणे विहरइ, तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरड़, गोसाले मंखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिस पगासेमाणे विहर ।। ८०. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म आसुरुत्ते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हालाहलाए कुंभकारी कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिवुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं चावि विहरइ ॥ गोसालस्स आणंदथेरसमक्खे अक्कोसपदंसण-पदं ८१. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे Jain Education International २७६ ततः सा महामहती महार्घ्यपरिषद् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूता तस्यामेव दिशि प्रतिगता । गोशालस्य अमर्ष-पदम् ततः श्रावस्त्यां नगर्यां श्रृंगाटक- त्रिकचतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख-महापथ- पथेषु बहुजनः अन्योन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-यत् देवानुप्रिया ! गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् जिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति तत् मिथ्या । श्रमणः भगवान् महावीरः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति- एवं खलु तस्य गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य मंखली नाम मंखः पिता आसीत् । तस्य मंखस्य एवं चैव तत् सर्वं भणितव्यं यावत् अजिनः जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति, तत् नो खलु गोशालः मंखलिपुत्रः जिनः जिनप्रलापी यावत् विहरति, गौशालः मंखलिपुत्रः अजिनः जिनप्रलापी यावत् विहरति, श्रमणः भगवान् महावीरः जिनः जिनप्रलापी यावत् जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति । ततः सः गोशालः मंखलिपुत्रः बहुजनस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः, रुष्टः कुपितः ‘चंडिक्किए’ 'मिसिमिसेमाणे' आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य श्रावस्तिं नगरीं मध्यमध्येन यत्रैव हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य हालाहलायाः कुम्भकार्याः कुम्भकारापणे आजीविकसंघपरिवृतः महान्तम् अमर्षं वहमानः एवं चापि विहरति । गोशालस्य आनन्दस्थविरसमक्षे आक्रोशप्रदर्शन-पदम् तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य महावीरस्य अन्तेवासी भगवतः For Private & Personal Use Only श. १५ : सू. ७८-८१ ७८. वह विशालतम परिषद् श्रमण भगवान् महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गई। श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में लौट गई। गोशाल का अमर्प - पद ७६. श्रावस्ती नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैं - देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशाल जिन होकर जिन प्रलापी, यावत् जिन होकर जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है, वह मिथ्या है। श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करते हैं - मंखलिपुत्र गोशाल के पिता का नाम मंखली था। उसकी जाति मं थी। मंख की पूर्ववत सर्ववक्तव्यता यावत् जिन न होकर जिन शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है। इसलिए मंखलिपुत्र गोशाल जिन न होकर जिन प्रलापी है यावत् विहार कर रहा है। मंखलिपुत्र गोशाल अजिन होकर जिन प्रलापी है, यावत् विहार कर रहा है। श्रमण भगवान महावीर जिन होकर जिनप्रलापी हैं, यावत् जिन शब्द से अपने आपको प्रकाशित करते हुए विहार कर रहे हैं। ५०. मंखलिपुत्र गोशाल बहुजन के पास इस अर्थ को सुन कर अवधारण कर तत्काल आवेश में आ गया, रुष्ट हो गया, कुपित हो गया, उसका रूप रौद्र हो गया, क्रोध की अग्नि में प्रदीप्त होकर आतापन भूमि से नीचे उतरा, नीचे उतरकर श्रावस्ती नगर के बीचोंबीच जहां हालाहला कुंभकारी का कुंभकारापण था, वहां आया, आकर हालाहला कुंभकारी के कुंभकारापण में आजीविक संघ से संपरिवृत ' होकर महान् अमर्ष का भार ढोता हुआ विहरण करने लगा । गोशाल का स्थविर आनंद के समक्ष आक्रोश का प्रदर्शन-पद ८१. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी आनन्द नाम का www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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