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________________ श. १५ : सू. ७७ १. सूत्र ७७ प्रस्तुत शतक के सूत्र ३ से ७ को यहां (प्रस्तुत सूत्र ७७ में) पुनः लगभग ज्यों का त्यों दोहराया गया है। लगता है 'दिशाचर' वाली घटना जो सूत्र में आ गई थी, उसका अनुसंधान करने के लिए इसे फिर दोहराया गया है। सूत्र ८ से सूत्र १३ में श्रावस्ती में भगवान् महावीर के आगमन तथा श्रावस्ती नगर में फैल रहे संवाद कि 'मंखलिपुत्र गोशालक जिन प्रलापी........होकर अपने आपको 'जिन' शब्द से प्रकाशित करता हुआ विहार कर रहा है, क्या यह ऐसा ही है ?' इस पर गौतम गणधर द्वारा महावीर को प्रश्न पूछना तथा उसके उत्तर में गोशालक के वृत्त को बतलाने का प्रारंभ करना-यहां तक का विषय है। सूत्र १४ से ७५ तक गोशालक का पूरा वृत्तान्त है, जिसमें गोशालक के जन्म, भगवान् महावीर के साथ गोशालक के प्रथम मिलन से लेकर उसके अलग होने तक की घटनाएं वर्णित हैं। सूत्र ७६ में अलग होने के बाद गोशालक द्वारा तेजोलेश्या प्राप्ति की घटना दी गई है। अगले सूत्र (सूत्र ७८) में परिषद् भगवान् के मुख से गोशालक के पूरे वृत्त को सुन कर संतुष्ट होने तथा विसर्जित होने की बात है। सूत्र महावीर | दीक्षा का तीसरा वर्ष | दीक्षा का दसवां वर्ष दीक्षा का ग्यारहवां वर्ष | दीक्षा के बारहवें से पच्चीसवें वर्ष के बीच तेरहवें वर्ष में जिनत्व-प्राप्ति दीक्षा के छब्बीसवें वर्ष में श्रावस्ती आगमन, नगरवासियों के | गोशालक के विषय में चर्चा - गोशालक का पूर्व वृत्त प्रकट करना। महावीर के समवशरण में गोशालक द्वारा तेजोलेश्या का प्रयोग-महावीर हत होने पर छह मास तक रुग्ण । | श्रावस्ती की घटना के सोलह वर्ष पश्चात् दीक्षा के तयालीसवें वर्ष | में निर्वाण-प्राप्ति २. दिशाचर २७८ भाष्य ७६ से पुनः श्रावस्ती में इसकी प्रतिक्रिया तथा आगे का घटना - वृत्त प्रारंभ होता है। अभयदेवसूरि ने दिशाचर का अर्थ 'मर्यादा को मानने वाला' शिष्य किया है। उन्होंने टीकाकार और चूर्णिकार का मत उद्धृत किया है। टीकाकार के अनुसार दिशाचर भगवान् के पार्श्वस्थीभूत शिष्य हैं। चूर्णिकार के अनुसार वे पार्श्वपत्यीय पार्श्व की परंपरा के मुनि हैं।' ३. अष्टांग निमित्त अष्टांग निमित्तों के आठ प्रकार हैं- १. दिव्य २. उत्पात १. भ. १५/२ वृत्ति-दिशं - मेरां चरन्ति - यान्ति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्याः इति दिक्चराः देशाटावा, दिक्चराः भगवच्छिश्याः पार्श्वस्थीभूताः इति टीकाकारः, पासावचिजा त्ति चूर्णिकारः । २. भ. १५ / ४ : वृत्ति - अष्टविधम्-अष्टं प्रकारं निमित्तमिति शेषः तच्चेदं दिव्यं, औत्पातं, आंतरिक्षं, भौमं, आंगं, स्वरं, लक्षणं, व्यंजनं चेति । Jain Education International इस समग्र वृत्त से यद्यपि यह स्पष्ट नहीं होता कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक को छह दिशाचर कब मिलते हैं तथा कब से वह अपने आपको 'जिन' घोषित करता है, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि श्रावस्ती में अपने २६ वें वर्षावास में भगवान महावीर के आगमन के समय गोशालक का श्रमण पर्याय का चौबीसवां वर्ष चल रहा था (क्योंकि गोशालक ने महावीर के साधना काल के तीसरे वर्ष के प्रारंभ में महावीर के शिष्यत्व को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की थी।); चौबीस वर्ष की पर्याय से पूर्व ही दिशाचरों का मिलन एवं गोशालक द्वारा अपने आपको 'जिन' बताने की घोषणा - ये दोनों घटनाएं हो चुकी थीं। यह तो स्पष्ट है कि गोशाल ने अपने श्रमण-पर्याय के नवें वर्ष में तेजोलेश्या की प्राप्ति की थी। दिशाचरों से मिलन एवं 'जिनत्व' की घोषणा की घटनाएं दश से लेकर तेईस वर्ष के पर्याय काल में हुई ऐसा माना जा सकता है। इन आधारों पर महावीर और गोशालक का तुलनात्मक जीवन-प्रसंगों को इस प्रकार रखा जा सकता है गोशालक दीक्षा का प्रथम वर्ष दीक्षा का आठवां वर्ष - महावीर से अलग हुआ। भगवई दीक्षा का नवां वर्ष-तेजोलेश्या की प्राप्ति दीक्षा के दसवें से तेईसवें वर्ष के बीच दिशाचरों से मिलन एवं जिनत्व की घोषणा दीक्षा के चौबीसवें वर्ष में श्रावस्ती प्रवास के दौरान जनता में 'जिन' होने के विषय में चर्चा अपने वृत्त को जनता में प्रसारित होने पर क्रुद्ध होकर महावीर के पास जाना-अपनी ही तेजोलेश्या से प्रतिहत होकर सात दिन बाद अपने श्रमण- पर्याय के चौबीसवें वर्ष में ही मृत्यु गोशालक की मृत्यु के बाद सत्रहवें वर्ष में महावीर का निर्वाण ३. आंतरिक्ष ४. भौम ५. अंग ६. स्वर ७ लक्षण ८. व्यञ्जन ।' पूर्वगत- दृष्टिवाद का एक अंग, जिसके अंतर्गत चौदह पूर्व होते हैं। ४. मग्गदसमं वृत्तिकार ने गति-मार्ग और नृत्य मार्ग इन दो मार्गों की संभावना की है। उनके अनुसार नवम शब्द यहां लुप्त है इसलिए व्याख्यागत पाठ 'नवम - दसमौ' - इस प्रकार होना चाहिए। * ३. भ. १५ / ४ : वृत्ति - पूर्वगतं पूर्वाभिधान श्रुतविशेषमध्यगतम् । ४. भ. १५ / ४ वृत्ति-गीतमार्गनृत्यमार्ग- लक्षणो सम्भाव्येते, 'दसम' त्ति अत्र नवमशब्दस्य लुप्तस्य दर्शितान्नवमदशमाविति दृश्यं, ततश्च मार्गो नवमदशमौ यत्र तत्तथा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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