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भगवई
श. १२ : उ. २ : सू. ३१-३३ परम्परा में विद्यमान मुनियों के लिए होता था। इससे फलित होता है कि जयंती भगवान् पार्श्व के अर्हतों को आवास के लिए स्थान देती थी।
अर्हत् का एक विशेषण है वैशालिक श्रावक। वैशालिक शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। उत्तराध्ययन के मूल पाठ में नायपुत्त शब्द का प्रयोग है इससे ज्ञात होता है वैशालिक भगवान् महावीर का विशेषण है। शान्त्याचार्य की बृहवृत्ति में एक पाठान्तर का उल्लेख है। उसमें भगवान पार्श्व के लिए वेसालिए शब्द का विशेषण मिलता है।
प्रस्तुत आगम के दूसरे शतक में वैशालिक श्रावक का प्रयोग निग्रंथ के साथ हुआ है। इससे स्पष्ट है कि वैशालिक श्रावक अर्हत् का अर्थ है भगवान् पार्श्व के शासन का मुनि। वैशालिक श्रावक निग्रंथ का अर्थ है- भगवान महावीर के शासन का मुनि।'
अभयदेव सूरि ने वैशालिक का अर्थ भगवान महावीर किया है। किन्तु अर्हत् के साथ वैशालिक का प्रयोग है इसलिए यह अर्थ विचारणीय है।
३१. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी
समोसढ़े जाव परिसा पज्जुवासइ॥
तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् पर्युपास्ते।
३१. उस काल उस समय भगवान् महावीर आए
यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी।
३२. तए णं से उदयणे राया इमीसे कहाए ततः सः उदयनः राजा अनया कथया
लद्धढे समाणे हद्वतुढे कोडुबियपुरिसे लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टः कौटुम्बि सदावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी- पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंबिं एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! नगरिं सभिंतरबाहिरियं आसित्त- कौशाम्बी नगरी साभ्यन्तरबाहिरिकाम् सम्मज्जिओवलितं करेत्ता य कारवेत्ता __ आसिक्त-सम्मार्जितोपलिप्तां कृत्वा च य एयमाणत्तियं पचप्पिणह। एवं जहा कारयित्वा च एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत। कृणिओ तहेव सव्वं जाव पज्जुवासइ॥ एवं यथा कूणिक: तथैव सर्वं यावत्
पर्युपास्ते।
३२. इस कथा को सुनकर राजा उदयन हृष्ट
तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! शीघ्र ही कौशांबी नगरी के भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुगंधित जल से सींचो, झाड़ बुहारकर गोबर का लेप करो, लेपकर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो। इस प्रकार जैसे कौणिक राजा की वक्तव्यता (औपपातिक ५६-६९) वैसे ही सम्पूर्ण वर्णन यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी।
छात,
३३. तए णं सा जयंती समणोवासिया ततः सा जयन्ती श्रमणोपासिका अनया ३३. वह श्रमणोपासिका जयंती इस कथा को
इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा कथया लब्धार्था सती हृष्टतुष्टा यत्रैव सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो गयी। वह जहां जेणेव मिगावती देवी तेणेव उवाग- __ मृगावती देवी तत्रैव उपागच्छति, मृगावती देवी थी, वहां आई, आकर च्छइ, उवागच्छित्ता मिगावर्ति देविं एवं उपागम्य मृगावती देवीं . मृगावती देवी से इस प्रकार बोलीवयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रिये! देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर भगवं महावीरे आदिगरे जाव सवण्णू श्रमणः भगवान् महावीरः आदिकरः तीर्थंकर आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी आकाशगतेन आकाशगत-धर्मचक्र से शोभित यावत् जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे चंदोतरणे चक्रेण यावत् सुखंसुखेन विहरन् सुखपूर्वक चंद्रावतरण चैत्य में प्रवास योग्य चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं चन्द्रावतरणे चैत्ये यथाप्रतिरूपम् स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से
ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं ___ अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। भावेमाणे विहरइ।
आत्मानं भावयन् विहरति। तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिए! तत् महाफलं खलु देवानुप्रिये! देवानुप्रिये ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम, तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं तथारूपाणाम अर्हतां भगवतां गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है नामगोयस्स वि सवणयाए जाव एयं णे नामगोत्र-स्यापि श्रवणस्य यावत् एतत् यावत् यह मेरे इहभव और परभव के लिए इहभवे य, परभवे य हियाए सुहाए नः इहभवे च, प्रेत्यभवे च हिताय हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिक- आनुगामिकता के लिए होगा। भविस्सइ ॥
त्वाय भविष्यति। १. देखें उत्तर ६/१७ का टिप्पण
५. भ. १२/३० : वैशालिकोभगवान्महावीरस्तस्य वचनं श्रृण्वन्ति, २. वही, ६/१७।
श्रावयन्ति या तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकास्तेषाम् आर्हतानाम् ३. (क) नव सुत्ताणि, पृ. १०८
अर्हदेवतानां साधूनामिति गम्यं 'पूर्वशय्यातरा' प्रथमस्थानदात्री (ख) उत्तरज्झयणाणि अध्ययन छह का आमुख
साधवो ह्यपूर्वे समायातास्तद्गृह एव प्रथमं वसतिं याचन्ते तस्याः ४. देखें भ. २/२५ तथा उसका भाष्य।
स्थानदात्रीत्वेन प्रसिद्धत्वादिति सा पूर्वशय्यातरा।
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