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श. १४ : उ. ४ : सू. ४६ - ५१
१. सूत्र ४८
प्रस्तुत सूत्र में वेदनीय के आधार पर होने वाली जीव की अनेकरूपता का प्रतिपादन है। कोई भी संसारी जीव सदा दुःखी या सदा सुखी नहीं रहता। वह दुःख का हेतु मिलने पर किसी समय दुःखी और सुख का हेतु मिलने पर किसी समय सुखी होता है। एक साथ दुःखी और सुखी - यह तीसरा विकल्प विमर्शनीय है। अभयदेवसूरि ने 'अपने-अपने हेतु से सुखी अथवा दुःखी बनता है'- इस हेतु के आधार पर इसकी व्याख्या की है। उसके साथ उन्होंने आगमिक मत भी उद्धृत किया है - जीव के एक समय में एक उपयोग होता है इसलिए सुख-दुःख का संवेदन एक साथ नहीं हो सकता।
४६. परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए ?
असासए ?
गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए ॥
'एक समय में जीव दुःखी और सुखी इस भंग की व्याख्या परमाणु के तृतीय भंग की भांति की जा सकती है-जीव जिस समय दुःखी है, उस समय सुखी भी है और जिस समय सुखी है, उस समय दुःखी भी है। सत्ता की दृष्टि से उसमें सुख और दुःख- दोनों विद्यमान
५०. से केणणं भंते! एवं बुच्चइ - सिय सासए, सिय असासए ?
गोयमा ! दव्वट्टयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं
असासए ।
से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - सिय सासए, सिय असासए |
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५१. परमाणुपणं भंते! किं चरिमे ? अचरिमे ?
गोयमा ! दव्वादेसेणं नो चरिमे, अचरिमे। खेत्तादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे । कालादेसेणं सिय चरिमे, सिय
भाष्य
हैं। अभिव्यक्ति की दृष्टि से कभी दुःख व्यक्त होता है, कभी सुख व्यक्त प्रथम दो अभिव्यक्ति की दृष्टि से तथा तीसरा भंग सत्ता
की दृष्टि से संगत हो सकता है।
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परमाणुपुद्गलः भदन्त ! किं शाश्वतः ? अशाश्वतः ?
गौतम! स्यात् शाश्वतः स्यात्
अशाश्वतः ।
१. सूत्र ४६-५०
जैन दर्शन में सत्य को देखने के लिए दो दृष्टियों का विधान किया गया है - द्रव्यार्थिक दृष्टि और पर्यायार्थिक दृष्टि |
इस अभिमत का समर्थन पुद्गल सूत्र (भगवई १४/४४) के तृतीय भंग से होता है।
जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य परिणामीनित्य है । पूर्व आलापक (भगवई १४ /४४-४७) में पुद्गल द्रव्य की परिणामीनित्यता बतलाई गई । प्रस्तुत सूत्र में जीव की परिणामीनित्यता वेदनीय के आधार पर प्रतिपादित की गई है। वेदनीय के आधार पर जीव में सुखदुःख का अनुभव होता रहता है। उसके निर्जीर्ण होने पर जीव एक भाव और एक भूत परिणाम में चला जाता है, सुख-दुःख के हेतु से होने वाले सुखात्मक और दुःखात्मक संवेदन समाप्त हो जाते हैं। उपयोग की अपेक्षा जीव अनेक भाव-भविक भी रहता है।' यहां वह विवक्षित नहीं है।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - स्यात् शाश्वतः ? स्यात् अशाश्वतः ? गौतम! द्रव्यार्थतया शाश्वतः, वर्णपर्यवैः गन्धपर्यवैः रसपर्यवैः स्पर्शपर्यवैः
अशाश्वतः ।
तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते - स्यात्
शाश्वतः स्यात् अशाश्वतः ।
भाष्य
भगवई
प्रकार अनंत और शाश्वत अनागत में किसी एक समय में।
परमाणुपुद्गलः भदन्त ! किं चरमः ? अचरम: ?
गौतम ! द्रव्यादेशेन नो चरमः, अचरमः । क्षेत्रादेशेन स्यात् चरमः स्यात् अचरमः । कालादेशेन स्यात् चरमः स्यात् अचरमः ।
४६. भंते! परमाणु पुद्गल क्या शाश्वत है ? क्या अशाश्वत है ?
गौतम ! स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है।
द्रव्य ध्रुव है और पर्याय परिवर्तनशील होता है। इन दो दृष्टियों के आधार पर परमाणु पुद्गल को कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत बतलाया गया है।
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५०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - स्यात् शाश्वत है ? स्यात् अशाश्वत है ? गौतम ! द्रव्य की दृष्टि से शाश्वत है। वर्ण पर्यवों, गंध पर्यवों, रस पर्यवों और स्पर्श पर्यवों की दृष्टि से अशाश्वत है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - परमाणु पुद्गल स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है।
१. भ. वृ. १४/४८ - दुःखी च सुखी च तद्धेतुयोगात् न पुनरेकदा सुखदुःख- २. भ. १८ / २१६ - २२०
वेदनमस्ति एकोपयोगत्वात् जीवस्येति ।
५१. भंते! परमाणु पुद्गल क्या चरम है ? क्या अचरम है ?
गौतम! द्रव्य की अपेक्षा चरम नहीं है, अचरम है। क्षेत्र की अपेक्षा स्यात् चरम है, स्यात् अचरम है। काल की अपेक्षा स्यात् चरम है,
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