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भगवई
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श. १४ : उ. ४ : सू. ५२,५३
भावादेशेन स्यात् चरमः स्यात अचरमः।
अचरिमे। भावादेसेणं सिय चरिमे, सिय अचरिमे॥
स्यात् अचरम है। भाव की अपेक्षा स्यात् चरम है, स्यात् अचरम है।
भाष्य
१. सूत्र ५१
प्रस्तुत सूत्र में परमाणु-पुद्गल के चरम और अचरम रूप पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार आदेशों (अपेक्षाओं) से विचार किया गया है।
परमाणु अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होता, अतः द्रव्यादेश से वह अचरम है।
अमुक नाम वाले केवली के केवली-समुद्घात के समय जो परमाणु किसी क्षेत्र में अवगाढ है, वह केवली समुद्घात के संपन्न होने पर फिर कभी उस क्षेत्र में उस केवली के समुद्घात के साथ संयोग नहीं करेगा- इस क्षेत्रादेश से परमाणु चरम है।
अमुक नाम वाले केवली के केवली-समुद्घात काल में जो परमाणु केवली-समुद्घात विशेषित होता है फिर वह किसी काल में नहीं होता- इस कालादेश से परमाणु चरम है।
अमुक नाम वाले केवली के केवली-समुद्घात के समय जो परमाणु विशेष वर्ण आदिभाव में परिणत हुआ, वह उस केवली-समुद्घात के सम्पन्न होने पर केवली-समुद्घात से विशेषित वर्ण आदि में परिणत नहीं होगा-इस भावादेश से परमाणु चरम है।
अभयदेवसूरि ने यह व्याख्या चूर्णिकार के अभिमत के आधार पर की है। उन्होंने अपनी ओर से इसमें कुछ नहीं लिखा है।'
___ कुछ परमाणु ऐसे होते हैं जिनका स्कंध रूप में परिणमन त्रिकाल में भी नहीं होता। इन परमाणुओं के आधार पर चरम की व्याख्या की जा सकती है।
जो परमाणु विससा परिणाम से परिणत हैं, उनकी अपेक्षा से भी चरम की व्याख्या की जा सकती है। वे परमाणु प्रयोग और मिश्र परिणाम की कोटि में कभी नहीं आते।
५२. कतिविहे णं भंते! परिणामे पण्णत्ते?
कतिविधः भदन्त! परिणामः प्रज्ञप्तः?
५२. भंते! परिणाम कितने प्रकार का प्रज्ञप्त
गोयमा! दविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा-जीवपरिणामे य, अजीवपरिणामे य। एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियव्वं॥
गौतम! द्विविधः परिणामः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-जीवपरिणामः च अजीवपरिणामः च। एवं परिणामपदं निरवशेष भणितव्यम्।
गौतम! परिणाम दो प्रकार का प्रज्ञाप्त है, जैसे-जीव परिणाम और अजीव परिणाम। इस प्रकार परिणाम पद (पण्णवणा पद १३) निरवशेष वक्तव्य है।
५३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति जाव विहरइ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति यावत् विहरति।
५३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है। यावत् विहरण करने लगे।
१. भ. वृ. १४/५१॥ २. (क) धवला ४/१,५, ४, गाथा १९/३२७।
(ख) श्लोकवार्तिक २ भाग १/५/८-१०/१७३।१०।
३. (क) भ. ८/२४।
(ख) तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी ५/३२ भाष्य की वृत्ति पृ. ३६०।
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