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________________ भगवई १. सूत्र ४४-४७ प्रस्तुत प्रकरण में परिणामी नित्यवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। एकान्त नित्यवाद में पदार्थ सदा एक रूप वाला होता है। परिणामी नित्यवाद के अनुसार पदार्थ में परिणमन होता रहता है, वह बदलता रहता है। परिणमन को रूक्ष स्निग्ध स्वरूप के द्वारा समझाया गया है। पुद्गल कभी रूक्ष होता है, कभी स्निग्ध होता है और कभी रूक्षस्निग्ध दोनों होता है। १६७ भाष्य जो रूक्ष है, वह स्निग्ध कैसे हो सकता है ? जो स्निग्ध है, वह रूक्ष कैसे हो सकता है? इसका उत्तर 'करण' पद के द्वारा दिया गया है। करण का अर्थ है परिणमन । वह स्वाभाविक भी होता है और प्रायोगिक भी होता है। पदार्थ सदा एक रूप नहीं रह सकता। उसमें परिणमन का चक्र चलता रहता है। यह परिवर्तन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। कभी-कभी परिणमन प्रायोगिक होता है-दूसरे के निमित्त से होता है। परिणमन के कारण पदार्थ अनेक वर्णों और अनेक रूपों में परिवर्तित होता रहता है। अनेक वर्ण और अनेक रूप की व्याख्या दो दृष्टियों से की जा सकती है। परमाणु एक साथ अनेक वर्ण और अनेक रूप वाला नहीं होता इसलिए उसकी व्याख्या समय-भेद के आधार पर की जा सकती है। दीर्घकाल में परिणमन के द्वारा वह अनेक वर्ण और अनेक रूप वाला होता है। स्कंध एक साथ अनेक वर्ण और अनेक रूप वाला हो सकता है। Jain Education International वर्तमान में एक वर्ण, एक रूप वाला होता है। स्कंध भी एक वर्ण, एक रूप वाला हो सकता है। श. १४ : उ. ४ : सू. ४८ पुद्गल - पद के द्वारा परमाणु और स्कंध दोनों का ग्रहण होता है, पर प्रधान रूप में इस प्रकरण में परमाणु का प्रतिपादन है। तीसरे विकल्प का संबंध स्कंध से है, यह अभयदेवसूरि का अभिमत है। उनके अनुसार रूक्ष अथवा स्निग्ध-इन दोनों पदों का संबंध परमाणु और स्कंध दोनों से है। एक समय में रूक्ष और अरूक्ष-यह परमाणु में घटित नहीं होता, इसलिए इसका संबंध स्कंध से है । द्व्यणुक आदि स्कंधों का एक देश रूक्ष और एक देश स्निग्ध-यह युगपत् स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श एक स्कंध में ही संभव है।' प्रस्तुत प्रकरण का सैंतालीसवां सूत्र स्कंध का प्रतिपादक है। अभयदेवसूरि ने इस सूत्र की पीठिका में लिखा है- पुद्गल के स्वरूप का निरूपण किया गया। स्कंध भी पुद्गल का एक प्रकार है इसलिए उसके स्वरूप का निरूपण किया जा रहा है।' इससे स्पष्ट है कि पुद्गल सूत्र में परमाणु और स्कंध - दोनों का संग्रहण किया गया है। स्कंध के सूत्र में केवल स्कंध का निरूपण है। यदि पुद्गल सूत्र की व्याख्या केवल परमाणु के आधार पर की जाए तो रूक्ष- अरूक्ष- इस तृतीय भंग की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है - परमाणु जिस समय रूक्ष है, उस समय स्निग्ध भी है। जिस समय स्निग्ध है उस समय रूक्ष भी है। सत्ता की दृष्टि से उसमें रूक्ष और स्निग्ध- दोनों गुण विद्यमान हैं । अभिव्यक्ति की दृष्टि से उसमें कभी रूक्ष धर्म व्यक्त होता है, कभी स्निग्ध धर्म व्यक्त होता है। प्रथम भंग अभिव्यक्ति की दृष्टि से, तीसरा भंग सत्ता की दृष्टि से संगत हो सकता है। वर्तमान की दृष्टि से विचार करें तब परमाणु एक वर्ण, एक रूप इस अभिमत का समर्थन जीव-सूत्र ( भगवई १४१४८) के तृतीय वाला होता है। पूर्ववर्ती परिणाम निर्जीर्ण हो जाता है, इसलिए वह भंग से होता है। ४८. एस णं भंते! जीवे तीतमणतं सासयं एषः भदन्त ! जीवः अतीतमनन्तं समयं दुक्खी ? समयं अदुक्खी ? समयं शाश्वतं समयं दुःखी ? समयम् दुक्खी वा अदुक्खी वा ? पुव्वि च णं अदुःखी ? समयं दुःखी वा अदुःखी वा ? करणेणं अणेगभावं अणेगभूयं परिणामं पूर्वं च करणेन अनेकभावम् अनेकभूतं परिणमइ ? अहे से वेयणिज्जे निज्जिण्णे परिणामं परिणमति ? अथ तत् वेदनीयं भवइ, तओ पच्छा एगभावे एगभूए निर्जीर्णं भवति, ततः पश्चात् एकभावः सिया ? एकभूतः स्यात् ? समय, हंता गोयमा ! एस णं जीवे तीतमणंतं हन्त गौतम! एषः जीवः अतीतमनन्तं सासयं समयं जाव एगभूए सिया । एवं शाश्वतं समयं यावत् एकभूतः स्यात् । नं सासयं एवं एवं प्रत्युत्पन्नं शाश्वतं समयम्, एवम् अणागयमणंतं सासयं समयं ॥ अनागतमनन्तं शाश्वतं समयम् । १. भ. वृ. सू. १४ / ४४-३६ - समयमेकं यावदरूक्षस्पर्शसद्भावात् 'अरूक्षी' स्निग्धस्पर्शवान् बभूव । इदं च पदद्वयं परमाणौ स्कंधे च संभवति । तथा समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा त्ति समयमेव रूक्षश्चारूक्षश्च रुक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयोपेतो बभूव, इदं च स्कंधापेक्षं यतो द्व्यणुकादि स्कंधे देशो ४८. भंते! यह जीव अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय दुःखी होता है ? किसी एक समय अदुःखी होता है? किसी एक समय दुःखी अथवा अदुःखी होता है? पूर्व में जो एक भाव आदि परिणाम वाला वह करण के द्वारा अनेक भाव, अनेक भूत आदि परिणाम वाला हो जाता है? वह वेदनीय निर्जीर्ण होता है, उसके पश्चात् वह एक भाव, एक भूत परिणाम वाला हो जाता है ? हां गौतम ! यह जीव अनंत और शाश्वत अतीत में किसी एक समय यावत् एक भूत परिणाम वाला हो जाता है। इसी प्रकार • शाश्वत वर्तमान में किसी एक समय में, इसी रूक्षो देशश्चारूक्षो भवतीत्येवं युगपत् रूक्षस्निग्धस्पर्शसंभवः । २. वही, १४ /४७ - अनंतरं पुद्गलस्वरूपं निरूपितं पुद्गलश्च स्कन्धोऽपि भवतीति, पुद्गलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह । ३. वही, १४ /४७- पुद्गलः परमाणुः स्कंधरूपश्च । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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