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श. १४ : उ. १०: सू. १४५ - १५१ सबले सवीरिए सपुरिसक्कार - परक्कमे, सिद्धे णं अणुट्टाणे अकम्मे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार- परक्कमे । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जहा णं केवली भासेज्ज वा वागरेज्ज वा नो तहा णं सिद्धे भासेज्ज वा वागरेज्ज वा ॥
१४५. केवली णं भंते! उम्मिसेज्ज वा ? निम्मिसेज्ज वा ?
हंता उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा ॥
१४६. जहा णं भंते! केवली उम्मिसेज्ज वा, निम्मिसेज्ज वा, तहा णं सिद्धे वि उम्मिसेज्ज वा निम्मिसेज्ज वा ? नो इट्ठे समट्ठे । एवं चैव । एवं आउंटेज्ज वा पसारेज्ज वा, एवं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएज्जा ॥
१४७. केवली णं भंते! इमं रयणप्पभं पुढविं रयणप्पभापुढवीति जाणइ - पासइ ? हंता जाणइ - पास ॥
१४८] जहा णं भंते! केवली इमं रयणप्पभ्रं पुढवं रयणप्पभापुढवीत जाणइ - पासइ, तहा णं सिद्धे वि इमं रयणप्पभं पुढविं रणभापुढवीत जाणड़-पासइ ?
हंता जाणड़-पास ॥
१४६. केवली णं भंते! सक्करप्पभं पुढविं सक्करप्पभापुढवीति जाणड़-पासइ ?
एवं चेव । एवं जाव असत्तमं ॥
१५१. केवली णं भंते! गेवेज्जविमाणं गेवेज्जविमाणे त्ति जाणइ-पासइ ?
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सवीर्यः सपुरुषाकार पराक्रमः, सिद्धः अनुत्थानः अकर्मा अबलः अवीर्यः अपुरुषाकार-पराक्रमः । तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-यथा केवली भाषेत वा व्याकुर्यात् वा नो तथा सिद्धः भाषेत वा व्याकुर्यात् वा ।
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केवली भदन्त ! उन्मिषेत् वा? निमिषेत्
वा?
हन्त उन्मिषेत् वा, निमिषेत् वा ।
यथा भदन्त ! केवली उन्मिषेत वा, निमिषेत् वा, तथा सिद्धोऽपि उन्मिषेत् वा निमिषेत् वा?
नो अयमर्थः समर्थः । एवं चैव । एवम् आकुञ्चेत् वा प्रसारयेत् वा, एवं स्थानम् वा, शय्यां वा, निषीधिकां वा चेतयेत् ।
केवली भदन्त ! इमां रत्नप्रभां पृथिवीं रत्नप्रभा पृथिवी इति जानाति पश्यति ? हन्त जानाति पश्यति ।
यथा भदन्त ! केवली इमां रत्नप्रभां पृथिवीं रत्नप्रभापृथिवी इति जानाति - पश्यति, तथा सिद्धोऽपि इमां रत्नप्रभां पृथिवीं रत्नप्रभापृथिवी इति जानाति - पश्यति?
हन्त जानाति पश्यति ।
१५०. केवली णं भंते! सोहम्मं कप्पं केवली सोहम्मकप्पे त्ति जाणड़- पासइ ?
हंता जाणइ-पासइ । एवं चैव । एवं ईसाणं, एवं जाव अच्चुयं ॥
केवली भदन्त ! शर्कराप्रभां पृथिवीं शर्कराप्रभापृथिवी इति जानाति - पश्यति ?
एवं चैव । एवं यावत् अधः सप्तमीम् ।
भदन्त ! सौधर्म कल्पं सौधर्मकल्पः इति जानाति पश्यति ? हन्त जानाति पश्यति । एवं चैव । एवम् ईशानम्, एवं यावत् अच्युतम् ।
केवली भदन्त ! ग्रैवेयकविमानं ग्रैवेयकविमानम् इति जानाति पश्यति?
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भगवई
सवीर्य, सपुरुषकार और सपराक्रम होता है। सिद्ध अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जैसे केवली बोलते हैं, व्याकरण करते हैं वैसे सिद्ध नहीं बोलते, व्याकरण नहीं करते।
१४५. भंते! केवली उन्मेष करते हैं ? निमेष करते हैं ?
हां, उन्मेष करते हैं, निमेष करते हैं।
१४६. भंते! जैसे केवली उन्मेष निमेष करते हैं, वैसे सिद्ध भी उन्मेष - निमेष करते हैं ?
यह अर्थ संगत नहीं है। पूर्ववत् । इसी प्रकार सिद्ध आकुंचन, प्रसारण, इसी प्रकार स्थान, शय्या, निषद्या नहीं करते हैं।
१४७. भंते! केवली 'इस रत्नप्रभा पृथ्वी को यह रत्नप्रभा पृथ्वी है' - ऐसा जानता देखता है ? हां, जानता- देखता है।
१४८. भंते! जैसे केवली 'इस रत्नप्रभा पृथ्वी को यह रत्नप्रभा पृथ्वी है - ऐसा जानता देखता है वैसे सिद्ध भी ' इस रत्नप्रभा पृथ्वी को यह रत्नप्रभा पृथ्वी है' - यह जानता - देखता है ?
हां, जानता देखता है।
१४६. भंते! केवली 'शर्कराप्रभा पृथ्वी को यह शर्कराप्रभा पृथ्वी है' - ऐसा जानता देखता है ?
पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् केवली अधः सप्तमी पृथ्वी को जानता देखता है।
१५०. भंते! केवली 'सौधर्म कल्प को सौधर्म कल्प है' - ऐसा जानता देखता है ? हां, जानता देखता है। पूर्ववत् । इसी प्रकार केवली ईशान को, इसी प्रकार यावत् अच्युत को जानता देखता है।
१५१. भंते! केवली 'ग्रैवेयक विमान को यह ग्रैवेयक विमान है' ऐसा जानता देखता है?
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