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भगवई
पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरइ, तं छंदेणं देवाणुपिया ! तुब्भे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिजागरमाणा विहरह, संखे णं समणोवासए नो हव्वमागच्छइ । तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा जाव विहरति ॥
धम्म
१५. तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि जागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुपज्जित्था - सेयं खलु मे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दियरे तेयसा जलते पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सुद्धपावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पायविहारचारेणं सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं निग्गच्छर, निग्गच्छिता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण - पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासति ॥
१६. तए णं ते समणोवासगा कल्लं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पहाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घा भरणालंकियसरीरा सएहिं सएहिं गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति,
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पौषधिकः यावत् विहरति, तत् छन्देन देवानुप्रियाः ! यूयं विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् प्रतिजाग्रतः विहरत, शङ्खः श्रमणोपासकः नो 'हव्वं' आगच्छति । ततः ते श्रमणोपासकाः तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तः यावत् विहरन्ति ।
ततः तस्य शङ्खः स्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापररात्रकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि-श्रेयः खलु मे कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा नमस्थित्वा यावत् पर्युपास्य ततः प्रतिनिवृत्तस्य पाक्षिकं पौषधं पारयितुम् इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति पौषधशालायाः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य शुद्धप्रवेश्यानि मांगल्यानि वस्त्राणि प्रवरं परिहितः स्वकात् गृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य पादविहारचारेण श्रावस्तीं नगरीं मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गम्य यत्रैव कौष्ठकं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते ।
ततः ते श्रमणोपासकाः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा ज्वलति स्नाताः कृत - बलिकर्माणः यावत् अल्प-महार्घ्याभरणालंकृतशरीराः स्वकेभ्यः स्वकेभ्यः गृहेभ्यः
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श. १२ : उ. १ : सू. १५, १६
यह तुम्हारा अभिप्राय है कि तुम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक-दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए, पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण करो, श्रमणोपासक शंख अभी नहीं आएगा। उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए यावत् पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण किया।
१५. मध्यरात्रि में धर्म जागरिका करते हुए श्रमणोपासक शंख के मन में इस आकारवाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ - यह मेरे लिए श्रेय है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार कर यावत् पर्युपासना कर वहां से प्रतिनिवृत्त होकर पाक्षिक पौषध का पारणा करूं, ऐसी संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर शुद्ध प्रवेश्य मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना, पहनकर अपने घर से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर पैदल चलकर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था- जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया, आकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करने लगा।
१६. उन श्रमणोपासकों ने दूसरे दिन उषाकाल
में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर स्नान, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। इस प्रकार सज्जित होकर
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