________________
श. १२ : उ. १ : सू. १३, १४
विस्साएमाणा परिभुंजे माणा पडिजागरमाणा विहरामो ॥
परिभाषमाणा पक्खियं पोसहं
१३. तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलिं समणोवासगं एवं वयासी- नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! तं विउलं असणं पाणं खामं साइमं
विस्साएमाणस
अस्साएमाणस्स परिभाषमाणस्स परिभुंजेमाणस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, कप्पड़ मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स ओमुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमाला - वण्णगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबिइयस्स दव्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, तं छदेणं देवाणुप्पिया ! तुभे तं विलं असणं पाणं खाइमं साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरह ॥
Jain Education International
विस्वादयन्तः
परिभुञ्जानाः प्रतिजाग्रतः विहरामः ।
१०
१. सूत्र १३
वृत्तिकार न चंद शब्द का अर्थ स्वाभिप्राय किया है। शंख भोजन करने की आज्ञा नहीं दे रहा है किन्तु यह कह रहा है- तुम अपनी १४. तए णं से पोक्खली समणोवासए संखस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्खमित्ता सावत्थिं नगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते समणोवासए एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! संखे समणोवासए १. भ. वृ. १२/१३ : छंदेणं ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति ।
२. भ. जो. ४ / २४६ / ६६, ६७
ततः सः शङ्खः श्रमणोपासकः पुष्कलिं श्रमणोपासकम् एवमवादीत्-नो खलु कल्पते देवानुप्रियाः ! तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयतः विस्वादयतः परिभाजयतः परिभुञ्जानस्य पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रतः विहर्तुम्, कल्पते मम पौषधशालायां पौषधिकस्य ब्रह्मचारिणः अवमुक्तमणिसुवर्णस्य व्यपगतमालावर्णक - विलेपनस्य निक्षिप्त- शस्त्र - मुसलस्य एकस्य अद्वितीयस्य दर्भसंस्तारोपगतस्य पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रतः विहर्तुम्, तत् छन्देन देवानुप्रिया ! यूयं तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तः विस्वादयन्तः परिभाजयन्तः पाक्षिकं पौषधं
परिभुञ्जानाः प्रतिजाग्रतः विहरत ।
वृत्ति टवा रे मांहि, छंदेणं नों अर्थ इम । निज इच्छाई ताहि, पिण म्हारी आज्ञा नथी ॥
पाक्षिकं
परिभाजयन्तः पौषधं
भाष्य
ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः शङ्खःस्य श्रमणोपासकस्य अन्तिकात् पौषधशालायाः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य श्रावस्ती नगरीं मध्यमध्येन यत्रैव ते श्रमणोपासकाः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् - एवं खलु देवानुप्रियाः । शङ्खः श्रमणोपासकः पौषधशालायां
भगवई
को खिलाते हुए, भोजन करते हुए, पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करेंगे।
इच्छा से जो चाहते हो वह करो।' जयाचार्य ने इसकी समीक्षा में लिखा है-भोजन करने के साथ धर्म का संबंध जुड़ा हुआ नहीं है इसलिए पौषध में भोजन करने की आज्ञा नहीं है।
१३. वह श्रमणोपासक शंख श्रमणोपासक पुष्कली से इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय मुझे यह नहीं कल्पता ( मेरे लिए यह करणीय नहीं है) कि मैं उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेता हुआ, विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, परस्पर एक दूसरे को खिलाता हुआ, भोजन करता हुआ पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं। मुझे यह कल्पता है (मेरे लिए यह करणीय है) कि मैं पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास करूं, सुवर्ण, मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित होकर, शस्त्र - मूसल आदि का वर्जन कर अकेले, सहाय्य निरपेक्ष होकर, दर्भ-संस्तारक पर बैठकर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं । देवानुप्रियो ! इसलिए तुम अपने छंद (अभिप्राय) के अनुसार उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करो।
For Private & Personal Use Only
१४. श्रमणोपासक पुष्कली ने श्रमणोपासक शंख के पास से पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच जहां वे श्रमणोपासक थे, वहां आया। वहां आकर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! श्रमणोपासक शंख पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास यावत् विहरण कर रहा है। देवानुप्रियो ! आज्ञा बार, तो जीमात्रै तेहनें। किम है धर्म उदार, न्याय दृष्टि करि देखियै ।।
जीमैं
www.jainelibrary.org