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भगवई
श. १२ : उ. १ : सू. १०-१२
अब्भटेइ, अब्भुढेत्ता सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता पोक्खलिं समणोवासगं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतेत्ता एवं वयासी-संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं?
अभ्युत्तिष्ठति, अम्युत्थाय सप्ताष्टौ पदानि अनुगच्छति, अनुगम्य पुष्कलिं श्रमणोपासकं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा आसनेन उपनिमन्त्रयति, उपनिमन्त्र्य एवमवादीत्-संदिशतु देवानुप्रिय ! किमागमनप्रयोजनम् ?
आठ कदम सामने गई। सामने जाकर श्रमणोपासक पुष्कली को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित किया। निमंत्रित कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! कहिए, आपके आगमन का प्रयोजन क्या है ?
भाष्य १. सूत्रह
लोकोपचार अथवा सामाजिक विधि है। यह जिन-आज्ञा सम्मत उत्पला ने पुष्कली को वंदन-नमस्कार किया। इस विषय पर धार्मिक अनुष्ठान नहीं है।' जयाचार्य ने एक टिप्पणी की है। श्रावक को वंदन-नमस्कार करना
१०. तएणं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं
समणोवासियं एवं वयासी-कहिण्णं देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए ?
ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः उत्पलां १०. श्रमणोपासक पुष्कली ने श्रमणोपासिका श्रमणोपासिकाम् एवमवादीत-कुत्र उत्पला से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! देवानुप्रिये ! शङ्कः श्रमणोपासकः? श्रमणोपासक शंख कहां है ?
११. तए णं सा उप्पला समणोवासिया ततः सा उत्पला श्रमणोपासिका ११. वह श्रमणोपासिका उत्पला श्रमणोपासक
पोक्खलिं समणोवासयं एवं वयासी-एवं पुष्कलिं श्रमणोपासकम् एवमवादीत्- पुष्कली से इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए एवं खलु देवानुप्रियाः! शङ्खः श्रमणोपासक शंख ने पौषधशाला में पोसहसालए पोसहिए बंभचारी श्रमणोपासकः पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास किया है, सुवर्ण,
ओमुक्कमणिसुवण्णे बवयगयमाला- ब्रह्मचारी अवमुक्तमणिसुवर्णः व्यपगत- मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण वण्णग-विलेवणे निक्खित्तसत्थमुसले माला-वर्णक-विलेपनः निक्षिप्तशस्त्र- और विलेपन से रहित, शस्त्र-मूसल आदि एगे अबिइए दब्भसंथारोवगए पक्खियं मुसलः एकः अद्वितीयः दर्भ- का वर्जन कर, अकेले, सहाय्य निरपेक्ष पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ॥ संस्तारोपगतः पाक्षिकं पौषधं होकर, दर्भ-संस्तारक पर बैठकर, पाक्षिक प्रतिजाग्रत् विहरति।
पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहार कर रहा है।
१२. तएणं से पोक्वली समणोवासए जेणेव ततः सः पुष्कली श्रमणोपासकः यत्रैव १२. वह पुष्कली श्रमणोपासक जहां पौषधशाला
पोसहसाला, जेणेव संखे समणोवासए, पौषधशाला, यत्रैव शङ्कः श्रमणो- थी, जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासकः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य आया, वहां आकर गमनागमन का गमणागमणाए पडिक्कमइ, गमनागमने प्रतिक्रामति, प्रतिक्रम्य शङ्ख प्रतिक्रमण किया, प्रतिक्रमण कर पडिक्कमित्ता संखं समणोवासगं बंदइ श्रमणोपासकं वन्दते नमस्यति, श्रमणोपासक शंख को वन्दन-नमस्कार नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत-एवं किया, वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं खलु देवानुप्रिय ! अस्माभिः तत् बोला-देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल अशन, से विउले असण-पाण-खाइम-साइमे विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया है, उवक्खडाविए, तं गच्छामो णं उपस्कारितम्, तत् गच्छामः देवानुप्रिय ! तुम चलो, हम विपुल अशन, देवाणुपिया! तं विउलं असणं पाणं देवानुप्रिय ! तत् विपुलम् अशनं पानं पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए,
खाइमं साइमं अस्साएमाणा खाद्यं स्वाद्यम् आस्वादयन्तः विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे १. भ. जो. ४/२४६/४६-५३
आसन आमंत्रण करी रे बोलै इह विध वाय। बंदे ते गुणग्राम, नमस्कार शिर नाम नैं।
आज्ञा यो देवानुप्रिया ! रे कवण प्रयोजन आय ? साहमी आवी नाम, विनय रीत निज साचवी॥
श्रावक साहमी आय, आसन आमंत्र्यो बलि। नवकार ना पद पंच, श्रावक नै तिहां दालियो।
निज छंदे कहिवाय, पिण नहीं अरिहंत आगन्या॥ नमस्कार नी संच, ए आज्ञा नहिं जिन तणी॥
नमस्कार पिण ताहि, गृहस्थ नैं करिवा तणी। जिन आज्ञा दे नाहि, धर्म नहीं आज्ञा बिना।
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