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भगवई
श. १२ : उ. १ : सू. १७-१६
१२ पडिनिक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य एकतः मेलायित्ता पायविहारचारेणं सावत्थीए मिलन्ति, मिलित्वा पादविहारचारेण नगरीए मझमज्झेणं निम्गच्छंति, श्रावस्त्याः नगर्याः मध्यमध्येन निग्गच्छित्ता जेणेव कोट्ठए चेइए, जेणेव निर्गच्छन्ति, निर्गम्य यत्रैव कोष्ठकं समणे भगवं महावीरे, तेणेव चैत्यं, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य श्रमणं महावीरं जाव तिविहाए पज्जुवासणाए भगवन्तं महावीरं यावत् त्रिविधया पज्जुवासंति॥
पर्युपासनया पर्युपासते।
अपने-अपने घरों से निकलकर एक साथ मिले। एक साथ मिलकर पैदल चलते हुए श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां कोष्ठक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान् महावीर यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करने लगे।
१७. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं
समणोवासगाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ॥
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यां च महामहत्यां परिषदि धर्म परिकथयति यावत् आज्ञया आराधकः भवति।
१७. श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणो
पासकों को उस विशालतम परिषद में धर्म कहा यावत् आज्ञा के आराधक होते हैं।
१८. तए णं ते समणोवासगा समणस्स ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य
भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्म श्रुत्वा निसम्म हट्टतुद्दा उठाए उठेति, उद्वेत्ता । निशम्य हृष्टतुष्टाः उत्थया उत्तिष्ठन्ति, समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखे नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यत्रैव समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, शङ्ख श्रमणोपासकः, तत्रैव उपागउवागच्छित्ता संखं समणोवासयं एवं च्छन्ति, उपागम्य शङ्ख श्रमणोपासकम् वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिया ! हिज्जो । एवमवादीत्-त्वं देवानुप्रिय ! 'हिज्जो' अम्हे अप्पणा चेव एवं वयासी-तुम्हे णं अस्मान् आत्मना चैव एवमवादीतं यूयं देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं देवानुप्रियाः! विपुलम् . अशनं-पानं खाइमं साइमं उवक्खडावेह। तए णं खाद्यं स्वाद्यम उपस्कारयत। ततः वयं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं तत् विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम साइमं अस्साएमाणा विस्साएमाणा आस्वादयन्तः विस्वादयन्तः परिभापरिभाएमाणा परिभुंजेमाणा पक्खियं जयन्तः परिभुजानाः पाक्षिकं पौषधं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। प्रतिजाग्रतः विहरिष्यामः। ततः त्वं तए णं तुमं पोसहसालाए पोसहिए पौषधशालायां पौषधिकः ब्रह्मचारी बंभचारी ओमुक्कमणि-सुवण्णे अवमुक्तमणि-सुवर्ण-व्यपगतमालाववगयमाला - वण्णग - विलेवणे वर्णक-विलेपनः निक्षिप्तशस्त्रमुसलः निक्वित्तसत्थमुसले एगे अबिइए एक: अद्वितीयः दर्भ-संस्तारोपगतः दन्भसंथारोवगए पक्खियं पोसहं पाक्षिकं पौषधं प्रतिजाग्रत् विहरसि, पडिजागरमाणे विहरिए, तं सुट्ठ णं तुमं तत् सुष्ठु त्वं देवानुप्रिय ! अस्मान् देवाणुपिया ! अम्हे हीलसि ॥ हेलयसि।
१८. वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर के
समीप धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुए, उठकर खड़े हुए, खड़े होकर श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां आए, वहां आकर श्रमणोपासक शंख से इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय! गत दिवस तुमने स्वयं ही हमें इस प्रकार कहा था-देवानुप्रिय ! तुम विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाओ। हम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक-दूसरे को खिलाते हुए और भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करेंगे। तुमने पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपूर्वक, सुवर्ण, मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित होकर, शस्त्र-मूसल आदि का वर्जन कर, अकेले, सहाय्य निरपेक्ष होकर दर्भ-संस्तारक पर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार किया। देवानुप्रिय! तुमने हमारी बहुत अवहेलना की।
१६.अज्जोति! समणे भगवं महावीरे ते आर्य इति ! श्रमणः भगवान महावीरः
समणोवासए एवं वयासी-मा णं तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-मा अज्जो ! तुम्भे संखं समणोवासगंहीलह आर्य ! यूयं शङ्ख श्रमणोपासकं हीलयत निंदह खिंसह गरहह अवमण्णह। संखे निन्दत 'खिंसह' गर्हध्वम् अवमन्यणं समणोवासए पियधम्मे चेव, दढधम्मे ध्वम्। शङ्खः श्रमणोपासकः प्रियधर्मा चेव, सुदक्खुजागरियं जागरिए॥ चैव, दृढ़धर्मा चैत्र, सुद्रष्ट्रजागरिकायां
जागरिकः।
१६. 'आर्यों! इस संबोधन से संबोधित कर
श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! तुम श्रमणोपासक शंख की अवहेलना, निंदा, भर्त्सना, गर्हा, और अवज्ञा मत करो। श्रमणोपासक शंख प्रियधर्मा है, दृढ़धर्मा है, उसने सुद्रष्टा जागरिका की है।
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