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भगवई
गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहानीहारिमे य, अनीहारिमे य। नियमं सडकम्मे ॥
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गौतम! द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथानिर्धारि च अनिर्धारि च । नियमं सप्रतिकर्म ।
१. सूत्र १३०-१४५
मरण का अर्थ है - आयुष्य की समाप्ति । वह एक प्रकार का ही होता है। प्रक्रिया हेतु और अवस्था भेद के आधार पर उसके सतरह प्रकार किए गए हैं।
१. भग. जो. ढा. २५६ गा. ४
आवीचि मरण-प्राणी आयुष्य कर्म के पुद्गलों के आधार पर ता है। वे पुद्गल स्कंध प्रति समय उदय में आते रहते हैं। आयुष्य के नए-नए पुद्गल स्कंध उदय में आते हैं और पूर्व पूर्व वाले विच्युत होते रहते हैं । मरण की इस प्रक्रिया का नाम आवीचि मरण है। एक लहर उठती है और नीचे गिर जाती है, फिर दूसरी उठती है और नीचे गिर जाती है। प्रस्तुत मरण वीचि या लहर की भांति होता है। ' अभयदेवसूरि ने वैकल्पिक पाठ 'अवीचिक' की व्याख्या की है। उसका आशय यह है - आयुष्य कर्म पुद्गल निरंतर विपाक में आते
१४६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।।
भाष्य
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आ कहितां समस्त प्रकार, वीचि किलोल नीं परै धार । समय- समय आउस्बो वेदंत, तिण सूं समय-समय ए मरंत ॥
रहते हैं। उनके उदय क्रम में कोई वीचि विच्छेद नहीं होता, यह अवीचिक मरण है।
अवधि - मरण - जीव आयुष्य कर्म के जिन पुद्गलों का एक बार वेदन कर मर जाता है। फिर दूसरी बार उन पुद्गलों का वेदन कर मरेगा। वह अवधिमरण कहलाता है।
आत्यंतिक मरण - जीव आयुष्य कर्म के जिन पुद्गलों का वेदन कर मरता है, उनका पुनः वेदन नहीं करेगा, वह आत्यंतिक-मरण कहलाता है।
द्रष्टव्य भगवई २ / ४६ का भाष: समवाओ १७ /६ तथा उत्तरज्झयणाणि ५ का आमुख |
बहियाई आदि पदों के लिए द्रष्टव्य-भगवई
भाष्य ।
तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति ।
श. १३ : उ. ७ : सू. १४६
गौतम! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेनिर्धारि, अनिर्धारि । यह नियमतः सप्रतिकर्म होता है।
२. भ. वृ. १३/१३०.
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'३५७ का
१४६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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