SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवई श. १२ : आमुख रोमांचक है। देव द्विशरीरी नाग और द्विशरीरी वृक्ष के रूप में उत्पन्न होता है और वह लोगों के द्वारा पूजनीय भी होता है और वह सहयोगी भी बनता है। पुनर्जन्म के विविध नियमों की जानकारी की दृष्टि से यह शतक बहुत मननीय है। इस शतक में स्याद्वाद की त्रिभंगी का उल्लेख मिलता हैरत्नप्रभा पृथ्वी स्याद् अस्ति, स्यान्नास्ति, स्याद् अवक्तव्य। परमाणु पुद्गल स्याद् अस्ति स्यान्नास्ति, स्याद् अवक्तव्य।' द्विप्रदेशी स्कंध से लेकर पंच प्रदेशी स्कंध तक के भंगों का विस्तृत उल्लेख है। छह प्रदेशी से अनंत प्रदेशी स्कंध तक के भंगों का समवतार किया गया है। सप्तभंगी के विषय में पंडित दलसुख मालवणिया ने विस्तार से चर्चा की है१. विधिरूप और निषेधरूप इन्हीं दोनों विरोधी धर्मों का स्वीकार करने में ही स्याद्वाद के भंगों का उत्थान है। २. दो विरोधी धर्मों के आधार पर विवक्षा-भेद से शेष भंगों की रचना होती है। ३. मौलिक दो भंगों के लिए और शेष सभी भंगों के लिए अपेक्षा-कारण अवश्य चाहिए। प्रत्येक भंग के लिए स्वतंत्र दृष्टि या अपेक्षा का होना आवश्यक है। प्रत्येक भंग का स्वीकार क्यों किया जाता है, इस प्रश्न का स्पष्टीकरण जिससे हो वह अपेक्षा है, आदेश है, दृष्टि है या नय है। ऐसे आदेशों के विषय में भगवान का मन्तव्य क्या था? उसका विवेचन आगे किया जाएगा। ४. इन्हीं अपेक्षाओं की सूचना के लिए प्रत्येक भंग-वाक्य में 'स्यात् ऐसा पद रखा जाता है। इसी से यह वाद स्याद्वाद कहलाता है। इस और अन्य सूत्र के आधार से इतना निश्चित है कि जिस वाक्य में साक्षात् अपेक्षा का उपादान हो वहां 'स्यात्' का प्रयोग नहीं किया गया है और जहां अपेक्षा का साक्षात् उपादान नहीं है, वहां स्यात् शब्द का प्रयोग किया गया है। अतएव अपेक्षा का द्योतन करने के लिए 'स्यात्' का प्रयोग करना चाहिए यह मन्तव्य इस सूत्र से फलित होता है। ५. जैसा पहले बताया है स्यावाद के भंगों में से प्रथम चार भंग की सामग्री अर्थात् चार विरोधी पक्ष तो भगवान् महावीर के सामने थे। उन्हीं पक्षों के आधार पर स्याद्वाद के प्रथम चार भंगों की योजना भगवान् ने की है किन्तु शेष भंगों की योजना भी भगवान् की अपनी है, ऐसा प्रतीत होता है। शेष-भंग प्रथम के चारों का विविध रीति से सम्मेलन ही है। भंग-विद्या में कुशल (भ. ६/५) भगवान के लिए ऐसी योजना करना कोई कठिन बात नहीं कही जा सकती। ६. अवक्तव्य यह भंग तीसरा है। कुछ जैन दार्शनिकों ने इस भंग को चौथा स्थान दिया है। आगम में अवक्तव्य का चौथा स्थान नहीं है। अतएव यह विचारणीय है कि अवक्तव्य को चौथा स्थान कब से, किसने और क्यों दिया। ७. स्याद्वाद के भंगों में भी विरोधी धर्मयुगलों को लेकर सात ही भंग होने चाहिए। न कम, न अधिक, ऐसी जो जैन दार्शनिकों ने व्यवस्था की है, वह निर्मूल नहीं है। क्योंकि त्रिप्रदेशिक स्कन्ध और उससे अधिक प्रदेशिक स्कंधों के भंगों की संख्या जो प्रस्तुत सूत्र में दी गई है, उससे यही मालूम होता है कि मूल भंग सात वे ही हैं, जो जैन दार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं। जो अधिक भंग संख्या सूत्र में निर्दिष्ट है, वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं है, किन्तु एकवचन-बहुवचन के भेद की विवक्षा के कारण ही है। यदि वचनभेद-कृत संख्यावृद्धि को निकाल दिया जाए तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं। अतएव जो यह कहा जाता है कि आगम में सप्तभंगी नहीं है, वह भ्रममूलक है। पापियार ३. आगम-युग का जैन-दर्शन पृ. ११२-११४। १. भ. १२/२११-२१७ २. भ. १२/२१८-२२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy