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________________ आमुख बारहवें शतक में विषय की विविधता है। विषय वस्तु का प्रारंभ श्रमणोपासक शंख के जीवनवृत्त से होता है। इसमें पाक्षिक पौषध का उल्लेख है। वह एक नई जानकारी देता है। सूत्र ग्यारह से तेरह में पाक्षिक पौषध और पौषध का अन्तर स्पष्टतया उल्लिखित है। श्रमणोपासक शंख के प्रसंग में तीन जागरिका का उल्लेख हुआ है वह अपूर्व है। कषाय के द्वारा कर्म की सात प्रकृतियों में परिवर्तन होता है। यह विषय कर्मशास्त्रीय दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्रावकों द्वारा शंख पोक्खली को वंदन-नमस्कार किया गया, इससे पारस्परिक शिष्टाचार की नई दृष्टि मिलती है। वैदिक साहित्य में गार्गी और मैत्रेयी का तत्त्वज्ञान प्रसिद्ध है, वैसे ही प्रस्तुत आगम में श्रमणोपासिका जयंती अपने तत्त्वज्ञान से विख्यात है। जयंती के द्वारा पूछे गए प्रश्न और भगवान् महावीर के द्वारा दिए गए उत्तर तत्त्वज्ञान की एक अमूल्य राशि है।' प्रस्तुत शतक में परमाणु के संघात से होने वाले स्कंध तथा स्कंध भेद से होने वाले परमाणु और स्कंधों का लंबा विवरण दिया गया है। यह पदार्थ संरचना की दृष्टि से बहुत मननीय विषय है। संघात-भेद के अनुपात से पुद्गल परिवर्त का बोध किया जाता है। पुद्गल परिवर्त संसार-भ्रमण का बोध कराने वाला एक गणितीय प्रकल्प है। इससे अनादिकालीन संसार परिभ्रमण की जानकारी मिलती जीव और पुदगल के मध्य भेद रेखा खींचना बहुत कठिन काम है। फिर भी स्वभाव और विभाव के वर्गीकरण पर उनकी भिन्नता का बोध किया जा सकता है। क्रोध, मान आदि अठारह पापों का एक वर्गीकरण है। वह जीव का वैभाविक गुण है। वह जीव और पुद्गल के संयोग से निष्पन्न होता है इसीलिए उसमें पुद्गल के गुणों का निरूपण किया गया है। बुद्धि आदि जीव के क्षायोपशमिक गुण हैं इसलिए उन्हें वर्णातीत कहा गया है। जीवों की विभक्ति कर्म के कारण होती है। यह कर्मशास्त्रीय दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है।१० जैन दर्शन का विकास आत्मा के परिपार्श्व में हुआ इसलिए उसमें पुनर्जन्म की चर्चा बार-बार होती है। प्रस्तुत शतक में 'अणंत खुत्तो'-अनंत बार जन्म के चक्र को अजा-व्रज के उदाहरण द्वारा बतलाया गया है। लोक का परमाणु जितना प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जहां जीव का जन्म और मरण न हुआ हो।" पुनर्जन्म के सिद्धांतानुसार उत्पाद होता रहता है, और जीव नाना रूपों को धारण करता रहता है। एक जीव सब जीवों के माता-पिता भाई, बहन आदि के रूप में उत्पन्न हो चुका है। यह पूरा प्रकरण ज्ञानवर्द्धक होने के साथ-साथ बहुत रोचक भी है। भीष्म ने अपने अपूर्व संस्कार की बात कही-जिस भूमि खंड पर किसी की चिता न बनी हो, उस भूमि पर चिता बनाने की बात कही, उस समय देववाणी हुई। उसमें आत्म-सिद्धांत की प्रतिध्वनि मिलती है मम प्राणपरित्यागे, तत्र संस्क्रियतां तनुः। न कोपि यत्र दग्धः प्राग् भूमिखंडे सदा शुचौ॥ अमानुष प्रचारे च, शृंगे कुत्रापि चोन्नते। अमुचन् देवता वाणी, क्वापि तत्रोद्यमो यदा॥ अत्र भीष्मशतं दग्धं, पाण्डवानां शतत्रयं । द्रोणाचार्यसहस्रं तु, कर्णसंख्या न विद्यते॥ जीव कहां से आया और कहां जाएगा-ये पुनर्जन्म के दो महत्त्वपूर्ण विषय हैं। इस विषय में सूत्र १५४ से ६१ तक का प्रकरण बहुत १. भ. १२/४-१० ७. भ. १२/८१-१०० २. भ. १२/२०-२१ ८. भ. १/३१२-३१३ का भाष्य ३. भ. १२/२२-२५ ६. भ. १२/१०२-१११ ४. भ. १२/२६ १०. भ. १२/१२० ५. भ. १२/४१-६४ ११. भ. १२/१३०-१३२ ६. भ. १२/६६-८० १२. भ. १२/१३३-१५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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