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________________ श. १५ : सू. १८६ ३३६ भगवई इत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो उद्त्य तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बारपञ्चायाहिति॥ प्रत्याजनिष्यते। बार जन्म लेगा। सम्वत्थ वि णं सत्थवज्ञ दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को बेइंदियविहाणाई भवंति, तं जहा- द्वीन्द्रियविधानानि भवन्ति, तद् यथा- प्राप्त कर ये जो द्वीन्द्रिय जीवों के भेदों का पुलाकिमियाणं जाव समुद्दलिक्खाणं, पुलाकृमिकानां यावत् समुद्रलिक्षाणाम्, विधान किया गया है, जैसे-पुलाकृमिक तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य- यावत् समुद्रलिक्षा तक हैं, उनमें अनेक उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः भूयः शतसहस बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के पचायाहिति। प्रत्याजनिष्यते। रूप में बार-बार जन्म लेगा। सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को वणस्सइविहाणाई भवंति, तं जहा- वनस्पतिविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो वनस्पति जीवों के भेदों का रुक्खाणं, गुच्छाणं जाव कुहणाणं तेसु यथा-वृक्षाणाम्, गुच्छानाम् यावत् । विधान किया गया है, जैसे-वृक्ष, गुच्छ यावत् अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- कुहनानाम्, तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः ।। कुहण ( फोड आदि) तक हैं, उनमें अनेक उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः- शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के पञ्चायाइस्सइ-उस्सन्नं च णं कडुयरुखेसु, भूयः प्रत्याजनिष्यते-'उत्सन्नं च। रूप में बार-बार जन्म लेगा-बहुल रूप में कडुयवल्लीसु। कटुक-वृक्षेषु, कटुकवल्लीषु। कटुकवृक्ष, कटुकवल्ली में बार-बार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को वाउक्काइयविहाणाई भवंति, तं वायुकायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो वायुकायिक जीवों के भेदों जहा-पाईणवायाणं जाव सुद्धवायाणतेसु यथा-प्राचीनवातानाम् यावत् शुद्ध- 'का विधान किया गया है, जैसे-पूर्ववात अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता- वातानाम् तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः यावत् शुद्धवात तक हैं, उनमें अनेक उदाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भज्जो-भुज्जो उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः- शतसहस बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के पञ्चायाहिति। भूयः प्रत्याजनिष्यते। रूप में बार-बार जन्म लेगा। सम्बत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहव-क्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को तेउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा- तेजस्कायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो तेजस्कायिक जीवों के भेदों इंगालाणं जाव सूरकंतमणि-निस्सियाणं, यथा-अंगाराणाम् यावत् सूरकान्त- का विधान किया गया है, जैसे-अंगार यावत् तेसु अणेगसयसहस्स खुत्तो उद्दाइत्ता- मणि-निश्रितानाम्, तेषु अनेकशत- सूर्यकान्तमणि निश्रित अग्नि तक हैं, उनमें उद्दाइत्ता तत्थेव-तत्येव भुज्जो-भुज्जो सहसकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैव- अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं पञ्चायाहिति। तत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते। जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा। सम्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिक: इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किचा जाइं इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि __ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को आउक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा- अप्कायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो अप्कायिक जीवों के भेदों का ओसाणं जाव खातोदगाणं, तेसु अणेग- यथा-'ओसाणं' यावत् 'खातोदगाणं' विधान किया गया है, जैसे-ओस, यावत् सयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता-उद्दाइत्ता तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य- खातोदग (खाई का पानी) तक हैं, उनमें तत्येव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पञ्चाया- उद्रुत्य तत्रैव-तत्रैव भूयः-भूयः अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं इस्सइ-उस्सन्नं च णं खारोदएसु प्रत्याजनिष्यते-'उस्सन्नं च क्षारोदकेषु जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगाखत्तोदएसु। 'खत्त' उदकेषु। बहलरूप में खाराजल और खातोदग में बार बार जन्म लेगा। सव्वत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ कालमासे कालं किच्चा जाई इमाई कालमासे कालं कृत्वा यानि इमानि दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को पुढविक्काइयविहाणाई भवंति, तं जहा- पृथ्वीकायिकविधानानि भवन्ति, तद् प्राप्त कर ये जो पृथ्वीकायिक जीवों के भेदों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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