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________________ भगवई ३३७ श. १५ : सू. १८६ पुढवीणं, सक्कराणं जाव सूरकंताणं तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ताउद्दाइत्ता तत्थेव-तत्थेव भुज्जो-भुज्जो पञ्चायहिति-उस्सन्नं च णं खरबायरपुढविक्काइए। यथा-पृथ्वीनाम् शर्कराणाम् यावत् सूरकान्तानाम् तेषु अनेकशतसहस्रकृत्वः उद्रुत्य-उद्रुत्य तत्रैवतत्रैव भूयः-भूयः प्रत्याजनिष्यते'उस्सन्नं' च खरबादरपृथ्वीकायिकेषु।। सव्वत्थ विणं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए सर्वत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा रायगिहे नगरे कालमासे कालं कृत्वा राजगृहे नगरे बाहिं खरियत्ताए उववज्जिहिति। बहिः 'खरियत्ताए' उपपत्स्यते। तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा दोचं पि रायगिहे कालमासे कालं कृत्वा द्विः अपि नगरे अंतो खरियत्ताए उववन्जिहिति। राजगृहे नगरे अन्तः 'खरियत्ताए' उपपत्स्यते। तत्थ वि णं सत्थवज्झे दाहवक्कंतीए तत्रापि शस्त्रवध्यः दाहावक्रान्तिकः कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे कालमासे कालं कृत्वा इहेव जम्बूद्वीपे । भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले द्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरि पादमूले सण्णिवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए बेभेले सन्निवेशे माहनकुले दारिकात्वेन पच्चायाहिति। प्रत्याजनिष्यते। तए णं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्क- ततः तां दारिकाम् अम्बापितरौ बालभाव जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं उन्मुक्तबालभावां यौवनकमनुप्राप्ता सुक्केणं, पडिरूवएणं विणएणं, प्रतिरूपकेण शुक्लेन प्रतिरूपकेण पडिरूवयस्स भत्तारस्स भारियत्ताए विनयेन, प्रतिरूपकस्य भर्ने भार्यात्वेन दलइस्सति। सा णं तस्स भारिया दास्यतः। सा तस्य भार्या भविष्यतिभविस्सति-इट्ठा कंता जाव अणुमया, इष्टा कान्ता यावत् अनुमता, भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव भाण्डकरण्डकसमाना 'तेल्लकेला'वत् सुसंगोविया, चेलपेडा इव सुसंपरिगहिया, संगोपिता, चेलपेटावत् सुसम्परिगृहीता, रयणकरंडओ विव सुसरक्रिवय, रत्नकरण्डकवत् सुसंरक्षिता, सुसंगोपिता, सुसंगोविया, मा णं सीयं, मा णं उण्हं मा शीतम्, मा उष्णः यावत् परीषहोपजाव परिसहोवसग्गा फुसंतु। तए णं सा सर्गाः स्पृशन्तु। ततः सा दारिका दारिया अण्णदा कदायि गुग्विणी अन्यदा कदाचित् गुर्विणी श्वसुरससुरकुलाओ कुलघरं निज्जमाणी अंतरा कुलात् कुलगृहं निर्यान्ती अन्तरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं दवाग्नि-ज्वालाभिहता कालमासे कालं किच्चा दाहिणिल्लेसु अग्गि-कुमारेसु कृत्वा दाक्षिणात्येषु अग्निकुमारेषु देवेषु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति। देवत्वेन उपपत्स्यते। का विधान किया गया है, जैसे-शर्करा यावत् सूर्यकान्त तक हैं, उनमें अनेक शतसहस्र बार मर कर पुनः उन्हीं जीवों के रूप में बार-बार जन्म लेगा-बहुल रूप में खर बादर पृथ्वीकायिक जीवों में-कठोर पृथ्वी में बारबार जन्म लेगा। इन सभी स्थानों में भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर राजगृह नगर में बाहर की ओर रहने वाली वेश्या के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर दूसरी बार भी राजगृह नगर में अन्दर की ओर रहने वाली वेश्या के रूप में उत्पन्न होगा। वहां पर भी शस्त्रवध्य होता हुआ दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल को प्राप्त कर इसी जम्बूद्वीप में भारत-वर्ष के अन्दर विन्ध्यगिरि की तलहटी में स्थित बेभेल सन्निवेश में ब्राह्मण कुल में पुत्री के रूप में उत्पन्न होगा। तत्पश्चात् वह कन्या (माता-पिता के द्वारा) क्रमशः उन्मुक्त बालभाव एवं यौवन को प्राप्त कर उचित कन्यादान के साथ विनयपूर्वक योग्य पति के साथ पत्नी के रूप में विवाहित की जाएगी। वह कन्या उस पति की इष्ट, कान्त यावत् अनुमत पत्नी बनेगी; वह आभरण-करण्डक के समान आदेय बनेगी; वह तेल के पात्र जैसी समुचित रूप में रक्षणीय होगी, वह वस्त्र की मंजूषा की तरह समुचित रूप में उपद्रव-रहित स्थान में गृहीत और निवेशित होगी, वह आभरण-करण्डक की भांति सुसंरक्षित और सुसंगोपित होती हुई, 'इसे सर्दी न लगे, गर्मी न लगे यावत् परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे' (इस अभिसन्धि से पालित होगी।) तब वह दारा अन्य समय में गर्भिणी होकर श्वसुर कुल से अपने पीहर जाती हुई बीच में दवाग्नि की ज्वाला से अभिहत होती हुई कालमास में काल को प्राप्त कर दाक्षिणात्य अग्निकुमार देवों में देव के रूप में उपपन्न होगी। तदनन्तर वह जीव वहां से उद्वृत्त होकर मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा, प्राप्त कर सम्पूर्ण बोधि का अनुभव करेगा, अनुभव कर से णं तओहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता सः तस्मात् अनन्तरम् उद्वर्त्य मानुष्यं माणसं विग्गहं लभिहिति, लभित्ता विग्रहं लप्स्यते, लब्ध्वा केवलां बोधिं केवलं बोहिं बुझिहिति, बुज्झित्ता मुंडे 'बुज्झिहिति', 'बुज्झित्ता' मुण्डः भूत्वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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