SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ७१,७२ आठ प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। ' सूत्रकार ने चार प्रदेशी से दस प्रदेशी स्कंध के लिए एक नियम का निर्देश दिया है। जघन्य पद में द्विगुण, उत्कृष्ट पद में पंच गुण तथा प्रत्येक में दो का और प्रक्षेप किया जाए। दृष्टव्य स्थापनापुद्गल प्रदेश १ ४ ७ ८६ १० ४ ८ १० १२ १४ १६ १८ २० २२ जघन्य पद में ७ १२ १७ २२ २७ ३२ ३७ ४२ ४७ ५२ उत्कृष्ट पद में ७१. एगे भंते! अद्धासमए केवतिएहिं धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? सत्तहिं । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? एवं चैव, एवं आगासत्थिकाएहिं वि । केवतिएहिं जीवत्थिकायपदेसेहिं पुट्ठे ? अणतेहिं, एवं जाव अद्धासमएहिं ॥ १४० १. भ. जो. ढा. २७८ गा. १०१-१०२ एकः भदन्त ! अद्धासमयः कियद्भिः धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? Jain Education International सप्तभिः । कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? एवं चैव, एवम् आकाशास्तिकायैः अपि । १. सूत्र ७१ जघन्य पद लोकान्त में ही संभव है। अद्धासमय वहां होता नहीं। फिर वह धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से स्पृष्ट कैसे हो सकता है ? अभयदेव सूरि ने इस प्रश्न का समाधान एक कल्पना के आधार पर किया है। उनके अनुसार यहां अद्धासमय विशिष्ट परमाणु द्रव्य विवक्षित है। ' भगवई लोकान्त में आकाश के असंख्य प्रदेश नहीं होते इसलिए जघन्य पद में जो असंख्य प्रदेशों का उल्लेख है, वह औपचारिक है। उत्कृष्ट पद में आकाश के अनंत प्रदेशों का उल्लेख भी औपचारिक है। लोक असंख्य प्रदेशात्मक है इसलिए अनंत प्रदेश शब्द का होना संभव नहीं है। ' कियद्भिः जीवास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः ? अनन्तैः, एवं यावत् अद्धासमयैः । इस विषय में जयाचार्य ने टबाकार के अभिमत का उल्लेख ७२. धम्मत्थिकाए णं भंते! केवतिएहिं धर्मास्तिकायः धम्मत्थिकायपदेसेहिं पुढे ? धर्मास्तिकायप्रदेशैः नत्थि एक्केण वि । नास्ति एकेनापि । केवतिएहिं अधम्मत्थिकायपदेसेहिं ? असंखेज्जेहिं । केवतिएहिं आगासत्थिकायपदेसेहिं ? भाष्य नयमत विण इम चीन, तीन प्रदेश विषे रह्या । पुद्गल प्रदेश तीन, त्रिण अवगाढ प्रदेश ते ॥ ऊपर तीन कहाय, तल पिण तीन कहीजिये । बेपासे बिहु थाय, इम अठ आख्या वृत्ति कृत ॥ २. भ. वृ. ६१२ - यथा जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि न हि निरुपचरिता अनंता आकाशप्रदेशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसंख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति । इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः - धम्माइपएसेहिं दुपएसाई जहन्नपयम्मि । दुगु दुरूहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा ॥ एत्थ पुण जहन्नपयं लोगंते, तत्थ लोग मालिहिउं । फुसणा दावेयब्वा अहवा खंभाइ कोडीए ॥ भदन्त ! किया है।" प्रस्तुत आलापक में अद्धासमय का अनेक बार उल्लेख है। उसके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि यहां अद्धासमय का प्रयोग व्यावहारिक काल के लिए किया गया है इसीलिए इकसठवें सूत्र में 'सिय पुढे सिय नो पुट्ठे' का नियम निर्दिष्ट है। व्यावहारिक काल समय-क्षेत्र अथवा मनुष्य लोक में होता है, उसके बाहर नहीं होता । कियद्भिः स्पृष्टः ? कियद्भिः अधर्मास्तिकायप्रदेश: ? असंख्येयैः । कियद्भिः आकाशास्तिकायप्रदेशैः ? ७१. भंते! एक अद्धासमय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? ७२. भंते! धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? एक से भी नहीं। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? असंख्येय से । आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट हैं ? ३. भ. वृ. प. १३ / ७१ - इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः, अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात् । इह च जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्यवर्तित्वादद्धासमयस्य जघन्यपदस्य च लोकान्त एव संभवादिति, तत्र सप्तभिरिति, कथम् ? अद्धासमयविशिष्टं परमाणुद्रव्यमेकत्र धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिश्विति सप्तेति । सात से। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? पूर्ववत् । इसी प्रकार आकाशास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता । वास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से। इसी प्रकार यावत् अद्धासमय से । For Private & Personal Use Only ४. भ. जो. ढा. २७८, गा. १७५-१७७ टबा विषे इम जेह, विशिष्ट अणु द्रव्य अंत नै। अद्धा समयपणेह, वांछितपणां थकी कहां ।। ते समय अनंता सोय, जे एक समय नै ठाम है। अथवा पासे जोय, गये काल अनंता बरतिया | तथा अनागत काल, अनंत वर्तस्यै ते भणी । तसु सद्भाव निहाल, एहवो कह्यो वा मझे ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003596
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages514
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy